क्यों उठी अपराधियों को विकल्प देने की मांग
सुप्रीम कोर्ट में चली बहस ने उठाए नैतिक और मानवीय सवाल
देश में मृत्युदंड (Death Penalty) के तरीके को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है। सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में सुनवाई के दौरान यह सवाल उठा कि क्या फांसी देना अमानवीय और दर्दनाक तरीका है? क्या अपराधियों को सजा के तौर पर अपने मृत्यु के तरीके — जैसे ज़हरबुझा इंजेक्शन, गोली मारना या अन्य मानवीय विकल्प — चुनने का अधिकार दिया जाना चाहिए?
वर्तमान में भारत में मृत्युदंड का तरीका “फांसी” है, जिसे ब्रिटिश काल से अपनाया गया है। लेकिन कई देशों ने अब इस पद्धति को छोड़ दिया है। अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में “लीथल इंजेक्शन” (ज़हर का इंजेक्शन) को अपेक्षाकृत मानवीय माना जाता है, जबकि कुछ देशों ने पूरी तरह से मृत्युदंड को खत्म कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में तर्क दिया गया कि फांसी के दौरान व्यक्ति की मृत्यु तुरंत नहीं होती — उसे घुटन और दर्द झेलना पड़ता है, जो मानवाधिकारों का उल्लंघन है। वहीं, सरकार का पक्ष है कि भारत में फांसी की प्रक्रिया कानूनी रूप से सुरक्षित और व्यवस्थित है, इसलिए इसे बदलने की आवश्यकता नहीं है।
कानूनी विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह बहस सिर्फ सजा के तरीके पर नहीं, बल्कि “न्याय बनाम मानवता” के बीच संतुलन पर है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी तरह की मृत्युदंड सजा अपने आप में अमानवीय है, जबकि अन्य का कहना है कि जघन्य अपराधों में इसे जारी रहना चाहिए — लेकिन प्रक्रिया को “कम पीड़ादायक” बनाया जा सकता है।
अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस संवेदनशील विषय पर क्या रुख अपनाता है — क्या भारत में सज़ा-ए-मौत का तरीका बदलेगा या वही पुरानी फांसी की रस्सी भविष्य में भी अंतिम न्याय का प्रतीक बनी रहेगी।
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