महेश कुमार सिन्हा
पटना : बिहार में सामंती पहचानों से ग्रसित जातिगत आधार की जड़ें पुरानी हैं। प्राय:सभी राजनीतिक दल राज्य में जातीय समीकरण को साधने में जुटे रहते हैं। जाति न केवल राजनीतिक बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी अहम भूमिका निभाती है। राज्य में चुनावों में अभी भी जाति ही मुख्य मुद्दा बन जाता है। विभिन्न पार्टियां टिकट भी इसी आधार पर बांटती हैं। क्षेत्रीय दलों का तो आधार ही कुछ खास जाति हैं। हालांकि हरेक पार्टी सार्वजनिक तौर पर तो यही कहती है कि “हम जातिवाद से परे हैं”, लेकिन बिहार की राजनीति को देखते हुए लगता है कि यहां बिना जाति के राजनीति हो ही नहीं सकती।
नीतीश कुमार कोयरी कुर्मी को प्राथमिकता देते आये हैं
लालू जहां यादवों के हितों को महत्व देते हैं तो नीतीश कुर्मी-कोयरी को प्राथमिकता देते आए हैं। लोजपा के दोनो गुट पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के नाम पर पासवान वोटों पर अपना दावा जता रहा है। राज्य की तथाकथित ऊंची जातियां (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ) और वैश्य समाज अभी भाजपा की प्राथमिकता सूची में है। इस तरह बिहार में जातिगत राजनीति हावी है और वोट और जीत का असली आधार भी यही है। यही कारण है कि जातीय जनगणना को लेकर भी सियासत खूब हो रही है। हालांकि जातीय गणना को पटना हाई कोर्ट ने अंतरिम आदेश देते हुए इस पर रोक लगा दी है। इसके बावजूद सभी दल जातियों के शुभचिंतक बनने को साबित करने में एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं। ऐसे में जातीय जनगणना के राजनीतिक दलों के लाभ और हानि को तौलकर इसके मायने निकाले जा रहे हैं और उसी के अनुसार बयान भी दिए जा रहे हैं।
जाति तोड़ने की कोशिशें रहीं असफल
हालांकि, जाति तोड़ने और अंतर्जातीय विवाह से सामाजिक विभेद खत्म करने के लिए कई स्तर पर मजबूत कोशिशें हुईं। बावजूद इसके राजनीतिक दल जातीय दल-दल को और गहरा करने के प्रयास में लगे रहे। बिहार सरकार की ओर से 1971 में मुंगेरी लाल आयोग का गठन हुआ था। नेतृत्व का सामाजिक समीकरण बदला। अंतिम पंक्ति को नेतृत्व की पहली कतार मिली। 1977 की जनता पार्टी की सरकार में कर्पूरी ठाकुर इस धारा के सर्वमान्य नेता थे। यह इस बात का भी प्रमाण था कि सर्वमान्य नेता बनने के लिए विचार और आचरण का मूल्य महत्वपूर्ण था, संख्या बल नहीं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1977 में दी थी। जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में उन सिफारिशों को स्वीकार करते हुए लागू कर दिया, जिसमें 127 पिछड़ी जातियों की पहचान करके सामाजिक न्याय का व्यावहारिक शास्त्र गढ़ा गया था।
मंडल कमीशन के दौर में और सशक्त हुई जाति की राजनीति
हालांकि उच्च जाति के लोग इसके बाद कल तक के सर्वमान्य नेता कर्पूरी ठाकुर को पिछड़ी जाति का नेता समझने लगे और जाति की राजनीति खत्म होने के बजाय संगठित होने लगी। 1979 में मंडल आयोग का गठन किया। बिहार की राजनीति में जाति आधारित राजनीति का खेल मंडल कमीशन के दौरान लड़े गए चुनावों के दौरान सबसे सशक्त हुआ था और तब से लेकर आज तक राजनेताओं ने इसे निरंतर मजबूती प्रदान करने का ही काम किया। अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण देने के फैसले के बाद से ही सूबे में जातीय ध्रुवीकरण की शुरुआत हुई थी।
पिछड़ी जातियां भी वर्गों में बंटी
अब तो पिछड़ी जातियों को भी राजनीतिज्ञों ने ‘आरक्षण-भोगी’ एवं ‘गैर-आरक्षण भोगी’ भागों में बांट दिया है। वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश की और आखिरकार सभी सिफ़ारिशों को तो नहीं, लेकिन 1993 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने आरक्षण की सिफारिशों को लागू कर दिया। इसके पहले 1990 के दशक तक, उच्च जातियों और निचली जातियों के बीच संघर्ष जारी रहा। इस अवधि के दौरान लगभग 17 नरसंहार हुए। लेकिन 1990 के दशक में सामाजिक न्याय और जनता दल की राजनीति के आगमन के साथ, निचली जाति राजनीतिक रूप से अधिक सक्रिय हो गई। लेकिन कोई भी राजनेता जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर विकास की बात को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। सामाजिक न्याय और हिंदुत्व के टकराव में सामाजिक ताना-बाना चरमराया।
लालू के आडवाणी का रथ रोकने से मुसलमानों का विश्वास राजद में बढ़ा
लालू प्रसाद की सरकार ने आडवाणी का रथ बिहार में रोका। मुसलमानों का विश्वास सामाजिक न्याय की सरकार पर बढ़ा। बिहार की राजनीति में यादव और मुसलमान की संयुक्त ताकत परवान चढ़ी। पटना का गांधी मैदान विभिन्न जातियों की रैलियों का गवाह बना। पिछड़ी जातियों में भी नेतृत्व की महत्वाकांक्षा का जगना और असंतोष का बढ़ना स्वाभाविक था। हालांकि उसे रोकने के लिए सामाजिक न्याय को मजबूत कदम उठाने के बजाय लालू प्रसाद ने अगड़ी जातियों के विरुद्ध कथित तौर पर ‘भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ करो’ का नारा दिया। केवल घृणा की राजनीति उन्हें रोक नहीं पाई। साल 2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार सत्ता में आए थे, तो वे अक्सर कहा करते थे कि वह जमात (आम जनता) की राजनीति में विश्वास करते हैं, जात (जाति) की नहीं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जाति की राजनीति से उनका जुड़ाव बढ़ा है।
लेखक : वरिष्ठ पत्रकार हैं।