दिल्ली में श्मशान घाटों पर गौबर के उपले (उपले/कांदे) जलाने के प्रस्ताव ने स्थानीय समुदाय, धार्मिक समूह और पर्यावरण-विशेषज्ञों के बीच तीखी बहस शुरू कर दी है। प्रस्ताव का मकसद पारंपरिक रीति-रिवाजों को प्रोत्साहन देना और परंपरागत ईंधन को बढ़ावा देना बताया जा रहा है, लेकिन आलोचक इसके पर्यावरणीय व स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर चिंतित हैं।
प्रस्ताव के समर्थन में दिये जाने वाले तर्कों में कहा जा रहा है कि गौबर का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों में शताब्दियों से होता आया है और इसे सास्कृतिक पहचान से जोड़ा जाता है। कुछ सूत्रों का यह भी कहना है कि अगर नियंत्रित ढंग से और मिश्रित ईंधन के रूप में उपयोग किया जाए तो यह परंपरागत विकल्प साबित हो सकता है और ईंधन की लागत कम कर सकता है।
वहीं, पर्यावरण तथा स्वास्थ्य-संबंधी वर्ग इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि खुले रूप में किसी भी जैविक ईंधन के जलने से सूक्ष्मकण (PM2.5/PM10) और अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है, जो पहले से प्रदूषित दिल्ली-एनसीआर की हवा और भी जहरीली कर सकता है। डॉक्टरों और नागरिक-संगठनों ने कहा है कि श्मशान जैसे खुले स्थानों पर इस तरह का इंडस्ट्रियल-स्टाइल जलाना सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा, खासकर बच्चों, बुजुर्गों और श्वसन रोगियों के लिये।
प्रस्ताव ने शहरी प्रशासन और नगर निगम के सामने नीति-चुनौतियाँ रख दी हैं: सांस्कृतिक भावनाओं का सम्मान कैसे हो और साथ-ही साथ वायु-गुणवत्ता व सार्वजनिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी कैसे निभाई जाए। विकल्पों के रूप में विशेषज्ञों ने इलेक्ट्रिक/इंडक्शन-क्रेमेटर, सीएनजी/एलपीजी-आधारित सिस्टम, या हाई-टेम्परेचर/इंसिनरेटर तकनीक के नियंत्रित उपयोग की सलाह दी है — ताकि उत्सर्जन को न्यूनतम किया जा सके और पारंपरिक रीति-रिवाजों का सम्मान भी हो सके।
स्थानीय निवासी, धार्मिक समूह और पर्यावरण संगठन अब ज़ोर देकर चाहते हैं कि प्रस्ताव पर निर्णय से पहले व्यापक सार्वजनिक परामर्श, वायु-गुणवत्ता का तकनीकी आकलन और स्वास्थ्य-प्रभावों की रिपोर्ट तैयार की जाए। इस विवाद ने एक बार फिर दिखा दिया है कि परंपरा और आधुनिक-वैज्ञानिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन साधना कितना नाज़ुक काम है।
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