दयानंद राय
दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से मुलाकात पुरानी है। याद आता है कि साल 2006 में जब प्रभात खबर घूस को घूंसा अभियान चला रहा था तो उस समय अरविंद जी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर जन जागरण अभियान चला रहे थे। रांची में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि देश का पान बेचनेवाला भी टैक्स देता है। मैं सोच में पड़ गया। एक प्रचलित धारणा को उनकी बातों से विलगाव महसूस हुआ। क्योंकि तब तक मैं यही समझता था कि टैक्स बड़े बड़े उद्योगपति देते हैं। सरकारी कर्मचारी देते हैं। गरीब और आम आदमी टैक्स नहीं देता। खैर अरविंद जी ने प्रभावित किया था। फिर जब उन्होंने आम आदमी पार्टी बनायी और दिल्ली के सीएम बने तो लगा कि एक नौकरशाह बदलाव ला सकता है। उन्होंने राजनीति में खुद को साबित करके दिखाया था। इसके बाद उनके काम को गौर से देखने लगा। आम आदमी पार्टी के कुछ काम थे जो देश की राजनीति के प्रचलित मॉडल को ध्वस्त करते थे। अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने देश में सरकारी स्कूलों का जो मॉडल खड़ा किया उसने इस प्रचलित मान्यता को तोड़ दिया कि इस देश में सरकारी स्कूल वैसे होते हैं जो नये बनने पर भी खंडहर की तरह दिखते हों और जहां कुत्तों और सुअरों का बसेरा हो। केजरीवाल ने सभी जरुरी सुविधाओं से सरकारी स्कूलों को लैस किया। तो सरकारी स्कूल पहली बार आम जनता के दिल को छूने लायक बनने लगे थे। मैं यह नहीं कहता कि केजरीवाल ने ऐसा करके कोई बड़ी क्रांति कर दी थी लेकिन उन्होंने यह भरोसा तो दिला ही दिया था कि सरकारी स्कूलों का मॉडल ऐसा भी हो सकता है और इसे धरातल पर उतारा जा सकता है। फिर स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोहल्ला क्लीनिक की कल्पना। जहां दवा, जांच और इलाज की समुचित व्यवस्था थी। पर जैसा कि हर अच्छे आदमी के साथ होता है उन्हें भी बहुत कुछ सहन करना पड़ा। कुछ दोस्त छोड़कर चले गये तो कुछ राजनीतिक दलों ने उन्हें परेशान किया। पर अरविंद कहां माननेवाले थे। बिजली की दरें घटाने और पानी की कीमत कम करने का श्रेय उनको मिला। दिल्ली की जनता ने उन्हें जो प्रचंड बहुमत दिया था उसकी भरपाई संभावनाओं की हद तक उन्होंने की थी। उनमें एक आशा दिखी थी, एक भरोसा जगा था। यही भरोसा लोकतंत्र को देश में पुख्ता करता है। जनता आशा भरी नजरों से देश के राजनीतिक दलों को देखती है, वह योग्य शासक चाहती है। पर जनता की आशाएं और आकांक्षाएं पूरी नहीं हो रही हैं। नेता वोट लेते थे भाषण देते थे और पांच साल बकवास, घोषणा और शिलान्यास उपवास करके जीवन भर पेंशन पाने के अधिकारी बन जाते थे। आज देश की स्थिति क्या है। कार्यकर्ताओं का भरोसा उनके अपने दलों के प्रति नहीं है। सरकारी स्कूल हों या अस्पताल विश्वसनीय नहीं हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। नौकरियां रहते हुए भी युवा नौकरी के लिए भटक रहे हैं। पैरवी और पहुंच के बिना जनता का कोई काम नहीं होता। ऐसे लोग भाषण देते हैं जो बोलना ही नहीं जानते। देश में कांट्रैक्ट की नौकरी का चलन है और उसमें शोषण की इंतिहा है। कृषि जो देश को अन्न देने के साथ बड़ी आबादी को रोजगार दे सकती है उसे बदहाल किया जा रहा है। देश में बदलाव कैसे आये इससे ज्यादा बहस मंदिर मस्जिद पर होती है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल उम्मीद जगाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि वे सबसे बेहतर हैं पर उन्होंने देश को सुशासन की एक उम्मीद तो दी ही है। मैं जो कह रहा हूं उससे असहमत लोगों की भी बड़ी संख्या हो सकती है पर मैं पहले की तरह ही इस बार फिर असहमति का स्वागत करता हूं।
जय हिंद, जय भारत, जय भारती।