Thursday, September 28, 2023

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अप्रतिम क्रांतिकारी थे धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा : डॉ जंग बहादुर पांडेय

डॉ जंग बहादुर पांडेय

सात समुंद की मसि करूं, लेखन सब बनराय।

धरती सब कागद करुं, धरती आबा गुण लिखा न जाय।

जय हो जग में जले जहां भी, नमन पुनीत अनल को।

जिस नर में भी बसे हमारा,

नमन तेज को, बल को।।

किसी वृन्त पर खिले विपिन में,

पर नमस्य है फूल।

सुधी खोजते नहीं गुणों का,

आदि शक्ति का मूल।।

रश्मिरथी (प्रथम सर्ग) – दिनकर

ये नमस्कारात्मक काव्य पंक्तियां राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने महाभारत के अप्रतिम दयावीर, युद्धवीर और दानवीर महारथी कर्ण को ध्यान में रखकर लिखी हैं लेकिन इन सारगर्भित पंक्तियों की व्यंजना कर्ण तक ही सीमित नहीं है, अपितु इनकी व्यंजना बहुत विस्तृत व्यापक और सूक्ष्म है। जंगल के किसी भी वृंत पर खिलने वाला फूल आदर और सम्मान का अधिकारी है। वे सभी लोग नमनीय और वंदनीय हैं जो तेजप्रताप तथा गुणों की खान हैं। सुधी जन गुणों के आदि और अंत के लिए व्यग्र नहीं होते अपितु गुनी जनों का समादर करते हैं। किसी धरती आबा के सुदीर्घ राजनीतिक सारस्वत साधना का आकलन और मूल्यांकन करना आसान कार्य नहीं है, विशेषत: उस धरती पुत्र की साधना का आकलन एवं मूल्यांकन तो और भी कठिनतम कार्य है, जिसका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी हो जिसके चिंतन का आकाश बहुत व्यापक एवं विस्तृत हो और जिसकी समझ की गहराई सागर वत हो और जो एक साथ कई गुणों से युक्त हो, ऐसे राजनीतिक साधक का बहिरंग जितना व्यापक होता है अंतरंग उससे कहीं अधिक गहरा।धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा झारखंड की धरती के ऐसे ही वरद् पुत्र थे। किसी को समय बड़ा बनाता है और कोई समय को बड़ा बना देता है। कुछ लोग समय का सही मूल्यांकन करते हैं और कुछ आने वाले समय का पूर्वाभास पा जाते हैं, तो कुछ लोग परत दर परत तोड़कर उसमें वर्तमान के लिए ऊर्जा एकत्र करते हैं और कुछ लोग वर्तमान की समस्याओं से घबराकर अतीत की ओर भाग जाते हैं। धरती आबा बिरसा मुंडा कभी समस्याओं से विमुख नहीं हुए और जब तक आजादी नहीं मिली, चैन की नींद नहीं सोए।

मुझे तोड़ लेना वनमाली

उस पथ पर देना तुम फेंक।

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ जाएं वीर अनेक।।

राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प की अभिलाषा के माध्यम से इन पंक्तियों में जिन भावों की अभिव्यक्ति की है, धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा उसके जीवंत प्रतीक थे। जो भले ही स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद नहीं हुए हों लेकिन उनमें शहादत के लिए साहस और दिल में सच्चा मान जरूर था। बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड प्रांत के खूंटी जिलान्तर्गत उलीहातू  ग्राम में 15 नवंबर 1875 को एक साधारण आदिवासी किसान परिवार में हुआ था तथा स्वर्गारोहण लंबी बीमारी के बाद रांची जेल में 9 जून 1900 को। इनके पिता का नाम सुगना मुंडा तथा माता का नाम करमी देवी था।दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के थे।इनकी प्रारंभिक शिक्षा पिता माता के संरक्षण में गांव में ही प्रारंभ हुई।मिडिल की शिक्षा चाईबासा मिशन स्कूल में हुई।लेकिन सरना की जमीन पर चर्च निर्माण को लेकर चाईबासा में बक-झक हुई और बिरसा ने अपने मिशन स्कूल के फादर का जमकर विरोध किया फलस्वरूप मिशन स्कूल चाईबासा से इनका नाम काट दिया गया।तभी से इनके मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत की आग सुलग गई।  देश की पुकार पर इन्होंने अपनी चलती और चमकती हुई गुरुआई छोड़ दी और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।अमर स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा आजादी की लड़ाई में न जाने कितनी बार जेल गए, परंतु जब तक जीवित रहे, वे चैन की नींद नहीं सो सके और अंतिम सांस भी रांची के सेंट्रल जेल में ही ली।भगवान बिरसा मुंडा के व्यक्तित्व और कृतित्व के कई आयाम हैं।

कर्मठ और दृढ़ संकल्पी योद्धा

अंग्रेजों के विधि-विधान से आदिवासी समाज दिनों दिन निर्धन तथा भूमिहीन होता जा रहा था।उस समय हवा चली कि जो ईसाई धर्म स्वीकार कर लेंगे उनके साथ अंग्रेजी सरकार न्याय करेगी और उनका दुख दूर हो जाएगा। इसी लोभ में बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।उनके पिता सुगना मुंडा ने जर्मन मिशन में वपतिस्मा लिया और उनका नाम मसीह दास पड़ा और बिरसा मुण्डा का नाम दाऊद। परंतु, ईसाई बनने पर भी इनकी निर्धनता दूर न हो सकी।अभाव में बिरसा को अपनी मौसी जौनी के घर कुंदी गांव में बकरी चराने जाना पड़ा।यहीं वे बचपन में बकरी चराते और बांसुरी और टुहिला बजाना सीखा।जंगल में बकरी चराते हुए उन्हें बाघ दिखाई पड़ा।वह बाघ बकरियों पर आक्रमण करने की फिराक में था लेकिन बिरसा मुंडा ने अपनी कुल्हाड़ी के एक वार में उसके दो टुकड़े कर दिए।इस घटना से बिरसा की वीरता की तूती बोलने लगी।

मिशन और अंग्रेजों के परम विरोधी

बिरसा मुंडा जब अपर प्राईमरी की शिक्षा चाईबासा के जर्मन मिशन में ले रहे थे,तभी वहां सरना के जमीन पर चर्च निर्माण को लेकर मिशन के पादरियों के साथ झगड़ा हुआ और एक पादरी नोतरोत ने मुंडा सरदारों को बेईमान कह दिया, क्योंकि वे ईसाई धर्म को नहीं स्वीकारते थे।बिरसा का स्वाभिमान यहीं से जागा और उन्होंने पादरी नोतरोत का जमकर विरोध किया और मिशन को त्याग दिया।बिरसा को यह समझते देर न लगी कि ये अंग्रेज हमारे धन,धरती,धर्म और धाक को लूट रहे हैं।चाईबासा से लौटकर वे गौरबेड़ा आ गए।यहां एक कपड़ा बुनने वाले गुरु पांडेय का आश्रम था, इसमें वे उनके शिष्य बन गए।यहीं बिरसा को रामायण, महाभारत और धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा मिली कि किस तरह युवा राम ने अत्याचारी रावण और कृष्ण ने दुराचारी कंस का राज समाप्त किया। चाईबासा मिशन में पढ़ते हुए बिरसा मुंडा ईसा मसीह के धर्म परायण सेवा और त्याग से प्रभावित हुए थे।ईसा मसीह की 10 आज्ञाओं को उन्होंने आत्मसात कर लिया था।इस तरह बिरसा मुंडा ने अपने जीवन में ईसा मसीह,राम और कृष्ण के आदर्श को ग्रहण कर लिया था।उन्हें लगा कि जिस तरह ये महापुरुष अपने युग का नेतृत्व कर सकें, तो क्या मैं अपने समाज और देश (अबुआ दिशुम) का नेतृत्व नहीं कर सकता?उन्होंने जड़ी-बूटियों से इलाज करना और सेवा भाव को अपने जीवन में प्रेम से स्वीकार करना शुरू किया।उनका इलाज चमत्कारी प्रभाव डालने लगा।बिरसा का व्यक्तित्व आकर्षक, जादुई और चुंबकीय तो था ही। इनकी वाणी में भी ओजस्विता थी।ये राम की तरह तीर धनुष चलाते,कृष्ण की तरह मधुर बांसुरी बजाते और ईसा मसीह की तरह लोगों की सेवा और प्रेम करते थे।मिशनरियां और अंग्रेज सरकार इनके बढ़ते प्रभाव से आतंकित हुई।ये बिरसा को पागल घोषित करने में लग गए।बिरसा ने अंग्रेजों तथा मिशन के प्रति आग उगलना शुरू कर दिया और अबुआ दिशुम अबुआ राज के लिए लोगों को तैयार किया। वर्ष 1881 से 1890 तक बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों के केन्द्रों को अपना निशाना बनाया क्योंकि ये दोनों इनके खून-पसीने से बनाए खूटकट्टी जमीन हड़प रहे थे और लालच देकर धर्म परिवर्तन कर रहे थे।आरंभ में इनका आंदोलन अहिंसक रहा, परंतु हिंसा का रास्ता अपनाए बिना इनके धर्म और धरती की सुरक्षा संभव प्रतीत नहीं हो रही थी। इन्होंने एलान कर दिया कि साहब साहब एक टोपी;जो अंग्रेज हैं और जो इनको मानते हैं ,वे सभी एक हैं। फलत: थानों और गिरजाघरों में आग लगायी जाने लगी और पुरोहितों पर तीरों से आक्रमण किया जाने लगा।

महात्मा और भगवान

वर्ष 1890 से 1900 तक बिरसा मुंडा महात्मा बिरसा मुंडा हो गए थे और फिर ये धरती आबा के नाम से पुकारे जाने लगे।बाद में लोग इन्हें बिरसा भगवान भी कहने लगे और लोग इनके दर्शन के लिए दूर-दूर से आने लगे।आदिवासियों के सर्वागीण शोषण से मुक्ति के लिए तथा अंग्रेजों और उनके अनुयायियों को समाप्त करने की योजनाएं बनने लगी।केले के थंभ को जैसे एक ही वार में काटकर गिरा दिया जाता है, उसी तरह देश के इन गोरे और उनके सहयोगियों को काट डालने की घोषणा हुई।यह देश मुंडाओं का है,ये दिकू अंग्रेज कहां से हम पर शासन करने आ गए! बिरसा की योजना से अंग्रेजों के कान खड़े हो गए। 26 अगस्त 1893 को अंग्रेज एसपी मियर्स,फादर लास्टी और अन्य लोभ में फंसे मुंडाओं के सहयोग से बिरसा मुण्डा पकड़ लिये गये। सुगना मुंडा ने अपने बेटे की गिरफ्तारी का जमकर बिरोध किया।पर सुगना को भी कैद कर लिया गया।महारानी विक्टोरिया के जुबली समारोह में ढ़ाई साल की सजा काटकर बिरसा मुंडा जेल से रिहा हो गए।अपने पिता के हत्यारों के प्रति बिरसा मुंडा का उलगुलान और उग्र हो गया।डोम्बारी पहाड़ और शैल रकब पहाड़ियों पर क्रांतिकारियों की सभा होने लगी कि कैसे मुण्डाओं देश को अंग्रेज हीन कर दिया जाए। 7 जनवरी 1900 को बिरसाइयों ने खूंटी थाना घेरकर उसमें आग लगा दी। बिरसा पकड़े न जा सके।वे जंगलों में गुप्त सभाएं करते थे। 9 जनवरी 1900 को जिलाधीश स्ट्रीट फील्ड, कमीश्नर फोरबीस ने बिरसा मुंडा को सरेंडर के लिए आदेश जारी किया।शैल रकब में सभा चल रही थी।बिरसा क्योंकर समर्पण करते !फलतः दोनों ओर से युद्ध शुरू हो गया।एक ओर तीर धनुष, ढेलकुसी तो दूसरी ओर गोली बंदूक चलने लगी।इस युद्ध में शैल रकब की पहाड़ी लाल हो गई।बिरसा के लगभग 400 क्रांतिकारी साथी मारे गए,जिसमें जवान बूढ़े बच्चे और औरतें भी थी।बिरसा अपनी साली(सहयोगिनी) के साथ चाईबासा के घने जंगलों में भाग गए।अंग्रेज उन्हें ढ़ूढते रहे और घूम-घूम कर उनकी सभाएं चलती रही।  बिरसा मुंडा पर 500 रुपये का इनाम घोषित हुआ।गया मुंडा के घर छापा मारा गया।गया मुंडा का सारा परिवार बहादुरी के साथ लड़ता रहा।गया मुंडा और उनके परिवार को उनकी वीरता और बलिदान के लिए सदा याद किया जाएगा। पर बिरसा को पकडऩे का सारा प्रयास निष्फल रहा। 4 फरवरी 1900 को जराईकेला के रोगतो गांव के सात मुंडाओं ने रात में सोए हुए बिरसा को खाट समेत बांधकर बंदगांव ले आए और अंग्रेजों के हवाले कर दिया।बंदगांव से बिरसा को खूंटी लाया गया।स्ट्रीट फील्ड जिलाधीश ने रांची के मजिस्ट्रेट डब्ल्यू एस. कुटूस की अदालत में मुकदमा कर दिया।वैरिस्टर जैकब ने बिरसा की पैरवी की।लेकिन फैसले के पहले ही 9 जून को रांची जेल में बिरसा को मार दिया गया और हैजे से उनकी मृत्यु घोषित कर दी गई।बिरसा की मृत्यु आज भी संदिग्ध है।इसके बाद आनन-फानन में बिरसा को कोकर के डिस्टलरी पूल के पास गोयठे के कंडे से आधा-अधूरा जलाकर नाले में बहा दिया गया।इस तरह महान स्वतंत्रता सेनानी झारखंड का धरती आबा शहीद हो गया।

 छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के जनक

बिरसाइयतों ने अपने गुरु के प्रति आस्था बनाए रखी।अल्पायु में जिस वीरता,सूझ-बूझ, राष्ट्र प्रेम,जाति, धर्म, समाज प्रेम का परिचय बिरसा मुण्डा ने  दिया वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।बिरसा आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908,सीएनटी एक्ट जिसके कारण आज भी आदिवासियों की जमीन बची हुई है।यह बिरसा मुण्डा की देन है।इतिहास में ऐसे महामानव सदियों में कभी कभी जन्म लेते हैं।

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है।

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल की ये पंक्तियां महापुरुषों के प्राकट्य का संकेत है। इतिहास साक्षी है कि भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के अथक प्रयास से 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, उनका सपना मानो साकार हुआ। इसी 15 अगस्त 1947 को विदेशी शासन के काले बादल छटे थे, विदेशियों के अत्याचारों का करका पात बंद हुआ था। उनके शोषण का शोणित स्राव रुका था, उस दिन की उषा वंदिनी नहीं थी ,उस दिन की सुहावनी किरणों पर दासता की कोई परछाई नहीं थी, उस दिन कहीं भी गुलामी की  दुर्गंध नहीं थी।उस दिन का सिंदूरी सवेरा पक्षियों की चहचहाहट और देशवासियों की खिलखिलाहट से अनुगूंजित हो रहा था।जनजीवन ने मुद्दत के बाद नई अंगड़ाइयां ली थी, एक नई ताजगी का ज्वार सर्वत्र लहरा रहा था।

 तप और त्याग की मूर्ति

धरती आबा ने ना घर की चिंता की न परिवार की अपितु उनके समक्ष राष्ट्रहित ही सर्वोपरि रहा। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है।

 नमन उन्हें मेरा शत बार।

 सूख रही है बोटी बोटी,

  मिलती नहीं घास की रोटी,

 गढ़ते हैं इतिहास देश का, सहकर कठिन सुधा की मार।

नमन उन्हें मेरा शत बार।

 जिनकी चढ़ती हुई जवानी, खोज रही अपनी कुर्बानी, जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका  त्योहार।

 दुखी स्वयं जग का दुख लेकर,  स्वयं रिक्त सबको सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट जिनका आहार।टेक

 वीर तुम्हारा लिए सहारा,

 टिका हुआ है भूतल सारा,

  होते तुम ना कहीं तो कब का,   उलट गया होता संसार।

 चरण धूलि दो शीश लगा लूं,

 जीवन का बल तेज जगा लूं,   

नमन उन्हें मेरा सत बार।

 स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ योद्धा

बिरसा मुंडा स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ योद्धा रहे हैं। लिए गए संकल्प से वे कभी भी पीछे नहीं मुड़े। चाहे कितनी ही विपत्तियां राह में रोड़े बनकर आईं, लेकिन वे ना तो मुड़े न ही पीछे हटे। ऐसे ही भारत मां के कर्मवीरों के लिए खड़ी बोली के प्रथम महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने अपने ‘कर्मवीर’ शीर्षक में लिखा है

देख कर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं।

रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।

काम कितना ही कठिन हो,

 किंतु उकताते नहीं।

भीड़ में चंचल बने जो,

वीर दिखलाते नहीं।

हो गए एक आन में,

 उनके बुरे दिन भी भले।

 सब जगह सब काल में,

 वे  ही मिले फूले फले।।

भारत के ऐसे कर्मयोगी पर भारतवासियों को नाज और ताज है।

झारखंड के नव निर्माता

आधुनिक झारखंड के नव निर्माण में जिन अनेक महापुरुषों का प्रमुख योगदान है,उनमे बिरसा मुण्डा का स्थान सर्वोपरि है।उनके उलगुलान के कारण ही आजादी की लड़ाई में गति आई।उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी और पूरी जवानी जेलों में काट दी।बिरसा मुंडा निष्काम कर्मयोगी थे। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि योग: कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्म की कुशलता का नाम ही योग है। धरती आबा बिरसा मुंडा जीवन पर्यंत अपने कर्म से विमुख नहीं हुए ,अपितु अपने कर्मों को कुशलता पूर्वक निष्पादित करते रहे। बिरसा मुंडा स्वयं तो आगे बढ़े ही समाज के दूसरे लोगों को भी अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ाया।राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा है कि यह सुधा गरल वाली धरती उसका नमन, वंदन और अभिनंदन करती है,जो स्वयं के साथ साथ दूसरों का भी बेड़ा पार कराए।

कौन बड़ाई चढ़े श्रृंग पर,

अपना एक बोझ लेकर?

कौन बडाई पार गए यदि,

अपनी एक तरी खेकर?

सुधा गरल वाली यह धरती,

उसको सीस झुकाती है।

खुद भी चढ़े साथ ले झुककर,

गिरतों को बाहें देकर।

बिरसा मुंडा का आचरण एवम् स्वभाव ऐसा था कि जो भी व्यक्ति एक बार उनसे मिलता, वह नहीं चाहने पर भी उनका हो जाता था।जिस प्रकार पारस बिना किसी भेदभाव के हर प्रकार के लोहे को अपने संस्पर्श से सोना बना देता है,उसी प्रकार धरती आबा अपने से मिलने वालों को सोना बना देते थे।गया मुंडा और अन्य इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।ऐसे ही पारस एवम् चुंबकीय व्यक्तित्व वालों के लिए महाकवि तुलसी ने लिखा है।

सठ सुधरहिं सत संगति पाई।

पारस परस कुधातु सुहाई।

11 अप्रतिम उदार एवम् दानी:-

लोग कहते हैं कि झारखंड में अनेक राजनेता हुए और भविष्य में भी होंगे,लेकिन धरती आबा की तरह होंगे या नहीं इसमें पूरा-पूरा संदेह है।आज तक उनके दरबार से कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी कुल, धर्म या जाति का हो,निराश या खाली हाथ नहीं लौटा-ऐसी थी उनकी उदारता और दानशीलता।तुलसी की विनय पत्रिका के शब्दों में कहना चाहें तो

ऐसो को उदार जग माही।

बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं।

सुप्रसिद्ध कथाकार सुदर्शन की कहानी हार की जीत के शब्दों को उधार लूं तो कहा जा सकता है कि ‘ऐसा मनुष्य मनुष्य नहीं बाबा भारती की तरह देवता होता है,जिन्होंने निज की हानि को मनुषत्व की हानि पर न्योछावर कर दिया है।धरती आबा ऐसे ही देव तुल्य महापुरुष थे,जो स्वर्ग से इस भूलोक को स्वर्ग बनाने आए थे।संस्कृत की नीति परक सूक्ति में कहा गया है कि स्वर्ग से आए हुए जीवात्मा में 4 लक्षण पाए जाते हैं।  दानशीलता, वाणी में मधुरता, देवार्चनता और आचार्यता।

स्वर्गाच्युतानामिह जीवलोके,

चत्वारि चिह्नानि वसंति देहे।

दान प्रसंगो, मधुरा च वाणी,

देवार्चनं पंडिततर्पणश्च।।

चाणक्य नीति श्लोक में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार सोने की परीक्षा घर्षण, छेद, ताप और पीटने से होती है, उसी प्रकार श्रेष्ठ पुरुष की परीक्षा उसकी विद्वता, सुशीलता कुलीनता और कर्मठता से होती है।

यथा चतुर्भि: कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणाच्छेदेनतापताडनै

तथा चतुर्भि: पुरुष:परीक्ष्यते,

श्रुतेन,शीलेन,कुलेन कर्मणा:।।

इन कसौटियों पर धरती आबा बिरसा मुण्डा सोलह आने खरे उतरते हैं। ऐसे नश्वर संसार में थोड़े नरवर हैं जो मरणोपरांत भी अमर हैं।महाकवि तुलसी ने इसकी घोषणा की है कि ते नरवर थोड़े जग माही। ऐसे महान अमर स्वतंत्रता सेनानी कर्मयोगी ,धरती आबा का परलोक गमन 9 जून 1900 को हो गया।हम उनके बताए मार्ग पर चलें और उनके सपनो को साकार करें यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि  होगी।बचपन में हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में एक पाठ पढ़ा था जो आज तक मानस पटल में है,जो उनकी वीरता की कहानी पर केन्द्रित है। बिरसा ने बाघ मारा।यह शीर्षक दोहरे अर्थवाला है।जंगल में बाघ मारा और अंग्रेज जैसे बहादुरों को भी मारा।उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक शोध कार्य हुए हैं और काव्य ग्रंथ लिखे गए हैं उनमें कुमार सुरेश सिंह का शोध ग्रंथ बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।न्याय मूर्ति विक्रमादित्य प्रसाद ने उनपर 15 सर्गों का एक महाकाव्य लिखा है।बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा है कि

भगवान कभी क्या मरता है,

है उलगुलान भी अंतहीन।

बिरसा के मर जाने से,

क्या यह आभा होगी कभी क्षीण?

जय हो इस क्रांति ज्वाल की,

जय हो उस भीषण आंधी की।

जय हो धरती के आबा की,

जय हो उस पहले गांधी की।

 धरती आबा का संकल्प और नारा था

सारा लहू बदन का, जमीं को पिला दिया,

हम पर वतन का कर्ज था, हमने चुका दिया।

जय हिंद,जय झारखंड जय श्री धरती आबा

लेखक : रांची विश्वविद्यालय के पीजी हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष तथा न्यूजवाणी के सलाहकार संपादक हैं।

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