डॉ जंगबहादुर पांडेय
मनुष्य सृष्टि का अनुपम और अद्वितीय बौद्धिक प्राणी है।84 लाख योनियों में भ्रमणोपरांत यह मनुष्य काया परमेश्वर की कृपा से प्राप्त होती है। महाकवि तुलसी ने लिखा है कि-
आकर चारि लच्छ चौरासी।
योनि भ्रमत यह जीव अविनासी।
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा।
मानस के उत्तरकांड में गरूड़देव महाराज ने काकभुशुण्डि से सात प्रश्न
पूछे थे।उसमें प्रथम प्रश्न यही था कि-
प्रथमहिं कहहु नाथ मति धीरा
सब ते दुर्लभ कवन सरीरा
उपासना घाट के वक्ता काक भुशुण्डि ने उत्तर दिया था –
नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत तेही।।
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।
ग्यान विराग भगति सुभ देनी।।
अर्थात् मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है।चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं।यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याण कारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देनेवाला है।मनुष्य की कामनाएं यों तो अनंत हैं फिर भी वे प्रमुख सात हैं जिनको बिना घात लगाए, वह प्राप्त करना चाहता है। इनमें पहला पद है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति ऊंचा से ऊंचा पद प्राप्त करना चाहता है।कोई चपरासी बनना नहीं चाहता।लेकिन व्यक्ति के केवल चाहने मात्र से बड़ा पद नहीं प्राप्त हो सकता है।उसके लिए ज्ञान का आश्रय चाहिए। मनुष्य की दूसरी चाहत पैसा है। जीवन में मनुष्य पद के साथ पैसे की भी कामना करता है।पद बड़ा मिल जाए और टका नदारद हो तो बहुत दिनों तक आप उस पद पर टिक नहीं सकते हैं,क्योंकि जीवन निर्वाह और गृहस्थी के प्रवाह के लिए अर्थ अपेक्षित है।अर्थ के लिए ही संसार में सारा अनर्थ हो रहा है।संस्कृत के एक श्लोक में टका के महत्व को बताया गया है:
टका ही धर्म, टका ही कर्म, टका परमं पद।
यस्य गृहे टका नास्ति ,स:टकटकायते।
लोक में कहावत है कि
जिसके पास नहीं है पैसा
उसका जग में जीवन कैसा
अथवा फिल्मी दुनिया का डायलॉग है-
बाप बड़ा ना भैया
सबसे बड़ा रुपैया
महाकवि तुलसी ने मानस में लिखा है:
नहि दरिद्र सम दुख जग माहीं
अस्तु अर्थ मनुष्य जीवन को व्यर्थ होने से बचाता है और अर्थ अर्जित करने के लिए ज्ञान का कौशल चाहिए।हर व्यक्ति प्रोन्नति भी चाहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति जहां नियुक्त हुआ है वहीं से सेवा निवृत्ति नहीं चाहता है। प्रोन्नति हर मनुष्य की कामना होती है।विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की तीन श्रेणियां हैं लेक्चरर, रीडर और प्रोफेसर।लेक्चरर रीडर ,रीडर प्रोफेसर और प्रोफेसर कुलपति बनना चाहता है।मेरे गुरुदेव डॉ वचन देव कुमार कहा करते थे कि लेक्चरर वह है जो पढ़ता और पढ़ाता है, रीडर वह है जो केवल पढ़ता है और प्रोफेसर वह है जो न पढ़ता है और ना ही पढ़ाता है बल्कि मुफ्त का तनख्वाह पाता है। अस्तु प्रोन्नति के बिना जीवन निरर्थक और सारहीन हो जाता हैऔर प्रोन्नति के लिए चाहिए ज्ञान का खजाना।हर मनुष्य की चौथी चाहत प्रतिष्ठा है।प्रतिष्ठा मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है। यह राजा और रंक धनी और निर्धन सबमें समान रुप से परिव्याप्त है।मनुष्य सब कुछ भी गंवाकर प्रतिष्ठा को बचाए रखना चाहता है।इसीलिए रहीम ने इसे बचाए रखने की सलाह दी है:
रहिमन पानी राखिए,बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै,मोती मानुष चून।
रहीम ने ही अन्यत्र कहा है कि प्रेम पूर्वक चने का सत्तू स्वीकार है लेकिन बिना मान-सम्मान के मैदा से बना पकवान भी व्यर्थ है:
रहिमन रहिला की भली,जो परसैं,चित्त लाय।
परसत मन मैला करें, सो मैदा जरि जाय।
संस्कृत का श्लोक है:
अधमा धनमिच्छंति,धनं मानं च मध्यमा।
उतमा मानमिच्छंति,मानंहि महतम धनम्।
अस्तु प्रतिष्ठा सर्वोपरि है और सबके लिए वांछनीय है।
मनुष्य की पांचवीं ऐषणा प्रभुता की चाह है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति सता अपने साथ में रखना चाहता है।व्यक्ति से विश्व तक संघर्ष का मूल कारण सता की प्राप्ति है। प्रभुता अर्थात् संप्रभुता यानि सता, दबदबा,मालिकाना सर्वोपरियता।राजनीति शास्त्र में संप्रभुता का तात्पर्य आतंरिक सर्वोच्च तथा वाह्य नियंत्रण से मुक्त।(Internally Suprime & externally free from all Kind of Controls is called sovereignty)। सास और बहू के बीत संघर्ष का मूल कारण प्रभुता ही है।बहू ने घर आते ही सास से तिजोरी की चाभी मांगी और सास ने कहा जीतेजी मैं चाभी देनेवाली नहीं हूँ।घर में लड़ाई का अंत तभी होगा जब कोई एक गंगा घाट पहुंच जाए।अस्तु प्रभुता हरेक की ख्वाहिश है।वहीं, प्रेम संसार का मूलाधार औरसृष्टि का आधार है। प्रेम ही मानव जीवन का श्रृंगार है। प्रेम नहीं तो जीवन बेकार है।
महाकवि तुलसी ने लिखा है-
रामहि केवल प्रेम पियारा।
जानी लेहु सो जान निहारा।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किए जोग तप ज्ञान विरागा।
अग जग मय प्रभु सर्व व्यापी।
प्रेम ते प्रकट होहिं जिमि आगी
मल्लिक मोहम्मद जायसी ने पद्ममावत् में जगत का सार प्रेम को ही बताया है:
मानुष पेम भयउ बैकुंठी।
नाही त काह छार एक मूठी।
पेम पंथ जौं पहुंचे पारा।
बहुरी न आई मिलै एही छारा।
संत कबीर ने ढ़ाई अक्षर पढ़ने वाले को ही पंडित की संज्ञा से अभिहित किया है।
पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ,पंडित भया न कोय।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ें, सो पंडित होय।
अस्तु प्रेम एक सात्विक भाव है और सबके लिए वांछित और अपेक्षित है।इसके अलावा जीवात्मा की अंतिम चाह परमात्मा से मिलन है,क्योकि वही परम सत्य है ।शंकराचार्य ने कहा
ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर:।
सभी धर्मों में ईश्वर को परम सता के रूप में स्वीकार किया गया है।उसे खुदा,ईश्वर या गॉड कह लें कोई अंतर नहीं पड़ता।संस्कृत के नीति श्लोक में कहा गया है कि सौ काम छोड़कर भोजन, हजार काम छोड़कर स्नान, लाख काम छोड़कर दान और करोड़ों काम छोड़कर प्रभु का स्मरण करना चाहिए।
शतं विहाय भोक्तव्यम् सहस्त्रं स्नानामाचरेत्
लक्षं विहाय दातव्यम्,कोटिश्च त्यक्त्वा हरिं भजेत्।
महाकवि तुलसी ने कहा है:
उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना
अस्तु ईश्वराराधन और ईश प्राप्ति हम सबका परम अभीष्ट है।
इन सात चीजों के अतिरिक्त संसार का प्रत्येक व्यक्ति जो एक चीज चाहता है उसका नाम है सफलता। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से गीता में पूछा कि संसार में सबसे पवित्रतम वस्तु क्या है? अर्जुन ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि प्रेम ,सहिष्णुता,सेवा परोपकार, सहायताआदि लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन जिन चीजों का नामोल्लेख कर हो उनकी पवित्रता में मुझे कोई संदेह नही है लेकिन ये पवित्रतम् नहीं है।अर्जुन को प्रबोधते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के 38वें श्लोक में अर्जुन से कहा कि:
न हि ज्ञानेन सदृशं,पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध:,कालेनात्मनि विन्दति।।
अर्थात इस संसार में ज्ञान से बढ़कर पवित्र करनेवाला नि:संदेह कुछ भी नही है।उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्म योग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है।
अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से ज्ञान प्राप्ति का उपाय पूछा।भगवान् ने कहा
श्रद्धावानलभते ज्ञानं तत्पर:संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
ज्ञान प्राप्ति के तीन सूत्र हैं। श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करते हैं श्रद्धा हृदय का वह सात्विक भाव है जो प्रेमास्पद में आंख बंदकर आस्था रखता है।भारतीय संस्कृति श्रद्धा प्रधान रही है;
अतिथि देवो भव
आचार्य देवो भव
मातृ दे्वो भव
पितृ देवो भव
कहा गया है कि:
मृत्यु हर चीज को बेजान बना देती है।
हवा हर लहर को तूफान बना देती है।
राह के पत्थर को पत्थर ना समझ।
श्रद्धा पत्थर को भगवान बना देती है।
श्रद्धा ज्ञान प्राप्ति का प्रथम कारक है।
ज्ञान प्राप्ति का दूसरा कारक तत्परता है।अर्थात परिश्रम, लगन,उद्यम ।बिना परिश्रम के कार्य की सिद्धि नहीं होती है।पंचतंत्र का श्लोक है-
उद्यमेन हि सिद्धयंति कार्याणि,न मनोरथै:।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।
अस्तु, परिश्रम का कोई विकल्प नहीं।(Labour never goes in vain)
महाकवि वृन्द ने कहा है कि-
करत-करत अभ्यास ते, जड़ मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सील पर परत निशान।
मनुष्य की 10 इन्द्रियां हैं और सभी सर्वोत्तम चाहती हैं। इनमें पांच ज्ञान इन्द्रियां हैं जैसे आंख,कान,नाक,जीभ और त्वचा।
आंख सुन्दरतम् देखना चाहती है,
कान मधुरतम् सुनना चाहता है,
नाक परफ्यूम के लिए आकुल-व्याकुल रहती है और त्वचा शीतलता का स्पर्श चाहती है। इसी तरह पांच कर्मेंन्द्रिया हैं जिनमें हाथ, पैर मुंह, लिंग और गुदा है ।मन इन्द्रियों का राजा है। वही रात-दिन बजाता बाजा है।व्यक्ति को भरमाता है फुसलाता है और उझराता है ।अत: उसका सुधरना आवश्यक है।क्योंकि
मन चंगा तो कठौती में गंगा
कबीर ने कहा है कि-
मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।
कह कबीर हरि पाइए, मनहि की परतीत।।
अत: ज्ञान प्राप्ति के लिए मन का नियंत्रण परमावश्यक है।इसलिए निष्कर्ष यह निकलकता है कि श्रद्धा, तत्परता, इन्द्रिय नियंत्रण और ज्ञान की प्राप्ति ही सफलता की कुंजी है।जीवन में सफलता चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसपर अमल करने की अपेक्षा है,तभी हमारी चाहत को राहत मिल सकती है।
लेखक : न्यूजवाणी के सलाहकार संपादक है।