डॉ जंगबहादुर पांडेय
धरा जब-जब विकल होती,
मुसीबत का समय आता।
किसी भी रूप में कोई,
महामानव चला आता।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
किसी को समय बड़ा बनाता है और कोई समय को बड़ा बना देता है। कुछ लोग समय का सही मूल्यांकन करते हैं और कुछ आने वाले समय का पूर्वाभास पा जाते हैं, कुछ लोग परत दर परत तोड़कर उसमें वर्तमान के लिए ऊर्जा एकत्र करते हैं और कुछ लोग वर्तमान की समस्याओं से घबराकर अतीत की ओर भाग जाते हैं। भारत भारती के लाल पंडित मदन मोहन मालवीय एक ऐसे ही युगपुरुष थे, जिन्होंने अपनी उपस्थिति से समय को बड़ा बना दिया और वर्तमान की समस्याओं से कभी मुंह नहीं मोड़ा। कहते हैं प्रतिभा कभी छुपाए नहीं छुपती, महान पुरुष के सद्गुण मृग में बसी कस्तूरी के समान होते हैं, जिसकी सुगंध बरबस सब को अपनी ओर खींच लेती है। ऐसे ही युग पुरुष थे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, जिनकी सरलता, सहजता सादगी, तप, त्याग, बुद्धिमता राष्ट्रभक्ति, शिक्षा के प्रति अनन्यता और दूरदर्शिता को भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में सराहा गया। महान देशभक्त और काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के संस्थापक महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को भारत की पवित्र नगरी प्रयागराज में हुआ था। इनके पूर्वज आजीविका के लिए मालवा से यहां आए थे। इनके पिता पंडित ब्रजनाथ मालवीय कथावाचक थे और उनका प्रयागराज में बड़ा सम्मान था। परिवार बड़ा होने के कारण मालवीय जी अपने एक सहपाठी के घर जाकर पढ़ा करते थे। सार्वजनिक कार्यों में प्रारंभ से ही उनकी रूचि थी। अंग्रेजी विद्यालयों की भारतीय संस्कृति विरोधी गतिविधियों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए उन्होंने छात्र जीवन में वाग्वर्धिनी सभा की स्थापना की। 1884 ई. में बीए पास करने के बाद उन्होंने वकालत पास की। वे आगे और पढ़ना चाहते थे, परंतु घर की आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें 40 रुपये प्रति मासिक की अध्यापकी की नौकरी स्वीकार करनी पड़ी। राजनीति की ओर मालवीय जी का आरंभ से ही आकर्षण था।1886 में कोलकाता कांग्रेस में उन्होंने ऐसा ओजस्वी भाषण दिया कि देशभर में उनकी ख्याति फैल गई। कालाकांकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीय जी दो वर्ष तक उनके पत्र ‘हिंदुस्तान’ के संपादक रहे। उसके बाद इलाहाबाद लौटकर कुछ अन्य पत्रों से उनका संबंध रहा। फिर उन्होंने 1907 ई. में ‘अभ्युदय’ साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया।1891 ई.में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे और शीघ्र ही कुशल वकील के रूप में प्रसिद्ध हो गए।चौरी-चौरा कांड में फांसी की सजा पाए 170 व्यक्तियों में से 150 को छुड़ा लेना उनकी प्रतिभा का ही फल था। मालवीय जी शिक्षा के महत्व को समझते थे। उन्होंने महाभारत ,रामायण, गीता एवं अन्य धर्म ग्रंथों का विधिवत् अध्ययन किया था और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि किसी भी देश या राष्ट्र का चतुर्दिक विकास शिक्षा पर ही निर्भर करता है। भगवान श्री कृष्ण ने भगवत् गीता में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा है कि
न हि ज्ञानेन सदृशं,
पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः
कालेनात्मनि विंदति।।4/38
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्रम और पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञान प्राप्ति के लिए जिज्ञासा करने पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि श्रद्धा तत्परता और इंद्रिय निग्रह द्वारा ही उस ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।
श्रद्धावान लभते ज्ञानं,
तत्पर संयतेंद्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां’
शांतिमचिराणाधिगच्छति।। 4/39
अर्थात् जितेंद्रिय, साधन परायण और श्रद्धावान मनुष्य ही तत्परता पूर्वक ज्ञान प्राप्त करता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण परम शांति को प्राप्त हो जाता है। रामचरितमानस में भी पक्षीराज गरुड़ के पूछे जाने पर उपासना घाट के वक्ता काकभुशुंडि ने संत, मुनि ,वेद और पुराणों का सार यही बताया है।
कहहिं संत मुनि वेद पुराण।
नहिं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना।।
तुलसी- रामचरितमानस 7/14
पंडित मदन मोहन मालवीय ने अपने ज्ञान रूपी सपने को साकार करने के लिए 4 फरवरी 1916 को वसंत पंचमी के दिन काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके लिए देश भर में घूम-घूम कर मालवीय जी ने धन संग्रह किया। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपने प्रयत्नों से काशी हिंदी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए ऐसे व्यक्तियों से धन एकत्र किया, जिन्हें भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रति विशेष लगाव न था। वे किसी भी रियासत के राजा महाराजा या जमींदार के पास धन संग्रह के लिए जाते तो खाली हाथ न लौटते।इस प्रसंग में एक घटना का उल्लेख समीचीन होगा कि एक बार वे हैदराबाद के निजाम के पास गए। उसने कुछ भी देने से इंकार किया। उन्होंने कहा कि मैं ब्राह्मण हूं बगैर कुछ लिए दरबार से जाने वाला नहीं हूं। इस पर निजाम ने गुस्से में अपनी जूती इन्हें दान में दी। इन्होंने प्रसन्नता पूर्वक उसे स्वीकार कर लिया और आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि मैं इस जूती को हैदराबाद के बाजार में नीलाम कर राशि प्राप्त करूंगा। निजाम को अपनी बेइज्जती महसूस हुई कि मेरी जूती हैदराबाद के बाजार में नीलाम होगी; इससे मेरी प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो जाएगी। उसने मालवीय जी से क्षमा मांगी और विश्वविद्यालय परिसर में एक छात्रावास बनाने का पूरा खर्चा वहन करने का संकल्प लिया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में हैदराबाद छात्रा वास हैदराबाद कॉलोनी में निजाम के द्वारा दिए गए दान से निर्मित हुआ है। उनकी इसी विशेषता के कारण मालवीय जी को शाही फकीर कहा जाता है। हिंदू धर्म के सनातन विधि विधान में अडिग आस्था रखने वाले मालवीय जी की दृष्टि संकुचित नहीं थी। एक बार विश्वविद्यालय के हरिजन छात्रों द्वारा अपने बर्तन ना साफ करने की शिकायत लेकर जब भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री और तत्कालीन बीएचयू के छात्र जगजीवन राम उनके पास पहुंचे और आवेश में कहा कि हमारे बर्तन कौन साफ करेगा ?तो मालवीय जी ने शालीनता से उत्तर दिया- मैं साफ करूंगा।जग जीवन राम उनके पैरों पर गिर पड़े और क्षमा याचना की। मालवीय जी हिंदी के परम हितैषी थे। पहले अदालतों में फारसी और उर्दू भाषा ही चलती थी। उन्होंने सप्रमाण हिन्दी का पक्ष प्रस्तुत करके 1898 ई में कचहरियों में हिंदी का प्रवेश कराया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (वाराणसी 1910) के अध्यक्ष वे ही थे। अपने समय के राजनीतिज्ञों की प्रथम कोटि में मालवीय जी की गणना होती थी। जीवन भर वे कांग्रेस से सदस्य रहे ।1909 के लाहौर और 1918 के दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन की इन्होंने अध्यक्षता की। होम रूल लीग के समर्थन में और रोलेट एक्ट के विरोध में भी इन्होंने पूरा भाग लिया। 1931 एवं 1933 में भी मालवीय जी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, परंतु पहले ही गिरफ्तार कर लिए गए थे।इलाहाबाद का हिंदू छात्रावास, ऋषि कुल हरिद्वार, सेवा समिति गोरक्षण समिति आदि अनेक संस्थाओं को स्थापित करने का श्रेय भी मालवीय जी को है। 1903 से 1919 तक केंद्रीय असेंबली के सदस्य के रूप में इन्होंने देश की सेवा की। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जहां भारतीय जन समुदाय उन्हें प्रेम करता था; वहां ब्रिटिश उच्च अधिकारी भी उनका सम्मान करते थे। मालवीय जी पूर्णतया भारतीय विचारों के समर्थक थे। उन्होंने अंत तक उन विचारों का समर्थन किया ,जिससे भारतीय संस्कृति संपोषित हुई।।अपने द्वारा किए गए सामाजिक, नैतिक एवं शिक्षा संबंधी कार्यो के कारण वे सर्वमान्य हो गए थे। वे पूर्णत: शाकाहारी और आस्तिक थे। निर्धनों के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम था। इसलिए उन्हें महामना की पदवी से विभूषित किया गया। वे हिंदी में ‘मकरंद’ उपनाम से कविताएं भी किया करते थे ।उन्होंने भारत की आजादी के लिए परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना की थी कि
मन पिरात धीरज छुटत,
समझि चूक अरू पाप।
सब प्राणिन के प्राण प्रभु’
हरहु शोक संताप।।
उनके जीवन का सूत्र था।
अपनी बोली अपना वेश,
अपनी संस्कृति अपना देश।
सारे सहज सुखों का सार’
सादा जीवन उच्च विचार।।
उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक साहित्यकारों ने कृतियां लिखी हैं और उन्हें महिमामंडित किया है।रांची की महिला साहित्यकार डॉ ऋता शुक्ला ने ‘महामना’ शीर्षक से उनके संपूर्ण जीवन पर केन्द्रित एक अद्भुत उपन्यास लिखा है,जो उदाहरणीय और पठनीय है। उनके द्वारा की सेवाओं के लिए कृतज्ञ राष्ट्र ने मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न (24.12.2014) प्रदान कर सम्मान प्रदान किया। 12 नवंबर 1946 को वे हमेशा हमेशा के लिए हमसे विदा हो गए। अब वे हमारे लिए देवतुल्य हो गए हैं।नजरों से ऐसे जुदा हो गए हैं। लगता है जैसे खुदा हो गए हैं।
लेखक : रांची विश्वविद्यालय के पीजी हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष और न्यूजवाणी के सलाहकार संपादक हैं।