Thursday, November 30, 2023

Latest Posts

यूपीएससी टॉपर इशिता किशोर की जाति और भारत का जातिवाद

दयानंद राय

जाति का सवाल भारत में एक बार फिर चर्चा में है। इस बार इसकी चर्चा यूपीएससी टॉपर इशिता किशोर को लेकर हो रही है। इससे पहले जाति का मुद्दा एंकर चित्रा त्रिपाठी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव के बीच ट्वीटर पर छिड़ी बहस से गर्मा गया था। भारत में जाति के सवाल का रह-रहकर शुतुरमुर्ग की तरह सर उठाना कोई नई बात नहीं है। जब मंगलवार को यूपीएससी के नतीजे आये और इशिता किशोर टॉपर घोषित हुईं तभी से गूगल पर उनकी जाति पता करने की होड़ लग गयी। इसे हवा तब और मिली जब ब्रह्म क्षत्रिय कायस्थ सेना ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट शेयर किया। इस पोस्ट में सेना की ओर से कहा गया कि कायस्थ समाज के लिए गर्व का पल। इशिता किशोर बनी यूपीएससी की टॉपर। गर्दनीबाग पटना की साधनापुरी मोहल्ले की इशिता किशोर ने यूपीएससी की परीक्षा में दूसरा स्थान हासिल किया है। इशिता अपने समय के ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के जाने-माने नौकरशाह और गर्दनीबाग ठाकुरबाड़ी चित्रगुप्त पूजा समिति के संरक्षक तथा अध्यक्ष स्वर्गीय बनवारी प्रसाद की नतिनी है। पूरे बिहार और कायस्थों को इशिता वर्मा पर गर्व है। भगवान चित्रगुप्त से प्रार्थना है कि छात्र आपसे प्रेरणा लेकर अधिक से अधिक अफसरशाही में जाकर देश की सेवा करें। अब सवाल उठता है कि किसी की व्यक्तिगत उपलब्धि को जातिगत उपलब्धि से जोड़ना कितना सही है और इससे हासिल क्या होता है। यह तो तय है कि जाति को लेकर भारतीय समाज अभी भी अपनी कुंठा से मुक्त नहीं हो पाया है और तमाम पढ़ने-लिखने और वैज्ञानिक ढंग से सोचने-विचारने की समस्त शक्ति के बाद भी जाति से मुक्ति न अतीत के भारत को मिल सकी थी न भविष्य के भारत में इसकी संभावना है। जरा याद कीजिए महाभारत के अविस्मरणीय पात्र कर्ण को। कर्ण क्षत्रिय था, उसने क्षत्रिय की तरह हर काम किया लेकिन उसे सूदपुत्र कहकर लांछित किया जाता रहा। उसकी वीरता और उसका पराक्रम प्रभावी होकर भी सदा सवालों के घेरे में रहा और इसलिए दिनकर कर्ण से कहलवाते हैं –

‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,

कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला

‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाषंड,

मैं क्या जानूं जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,

शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।

सूत्रपुत्र हूं मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?

साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

‘मस्तक ऊंचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,

पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।

अधम जातियों से थर-थर कांपते तुम्हारे प्राण,

छल से मांग लिया करते हो अंगूठे का दान।

जाति का सवाल ब्रिटिश भारत में और गहराता गया और सामाजिक संरचना में अपनी पैठ बनाता गया। प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल में जाति भारतीय समाज में क्या स्थान रखती है इसे प्रमुखता से चित्रित किया गया है। मैला आंचल उपन्यास बिहार के पूर्णिया जिले के एक गांव मैरीगंज को केंद्रित कर लिखा गया है। इस उपन्यास में एक मलेरिया सेंटर खुलता है जिसमें डॉ प्रशांत आते हैं। उनके आते ही गांव वाले सबसे पहले डॉ प्रशांत की जाति जानना चाहते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि डॉ प्रशांत की काबिलियत कितनी है, वो कितने जानकार हैं। उन्हें इससे मतलब है कि डॉक्टर प्रशांत चाहे जो कुछ भी हों लेकिन वे ऊंची जाति के होने चाहिए। जाहिर है जाति का सवाल भारतीय राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण आधार है। भारत में जातियों की बात करें तो जातियां सिर्फ चार हैं। व्यापक रूप से मनुस्मृति हिंदू कानून पर सबसे महत्वपूर्ण और आधिकारिक पुस्तक मानी जाती है और ईसा मसीह के जन्म से कम से कम 1,000 साल पहले की है, “जाति व्यवस्था को समाज की व्यवस्था और नियमितता के आधार के रूप में स्वीकार करती है और न्यायोचित ठहराती है”।जाति व्यवस्था हिंदुओं को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित करती है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बहुत से लोग मानते हैं कि समूहों की उत्पत्ति सृष्टि के हिंदू देवता ब्रह्मा से हुई है। पदानुक्रम के शीर्ष पर ब्राह्मण थे जो मुख्य रूप से शिक्षक और बुद्धिजीवी थे और माना जाता है कि वे ब्रह्मा के सिर से आए थे। फिर क्षत्रिय, या योद्धा और शासक, कथित तौर पर उसकी भुजाओं से आए। तीसरा स्लॉट वैश्यों या व्यापारियों के पास गया, जो उसकी जांघों से पैदा हुए थे। ढेर के नीचे शूद्र थे, जो ब्रह्मा के चरणों से आए थे और सभी छोटे काम करते थे।मुख्य जातियों को लगभग 3,000 जातियों और 25,000 उप-जातियों में विभाजित किया गया था, प्रत्येक अपने विशिष्ट व्यवसाय के आधार पर। इस हिंदू जाति व्यवस्था के बाहर अछूत थे – दलित या अछूत। तो भारत में जातियों की भरमार है और जातिवादी सोच एक तरह से भारतीय चिंतन परंपरा का हिस्सा बन चुका है। सवाल यह उठता है कि जिस तरह लोग व्यक्तिगत उपलब्धि को जातीय उपलब्धि से जोड़कर देखते हैं उससे हासिल क्या होता है। क्या किसी कायस्थ या फिर क्षत्रिय, ब्राह्मण और बनिया के किसी व्यक्ति के ऊंचा पद या राजनीतिक रसूखदार होने से उस समाज का भला हो जाता है। क्या वह व्यक्ति समूचे समाज का उद्धारक हो सकता है या होता है। सच्चाई ये है कि ऐसा कुछ नहीं होता है। पर जातिबोध की कुंठा से पीड़ित भारतीय समाज इसे छोड़ ही नहीं पाता। इसलिए वह प्रधानमंत्री की भी जाति ढूंढता है और राष्ट्रपति की भी। वह विधायक भी अपनी जाति वाला चुनना चाहता है और सांसद भी। यह भी समय का सच है कि राजनीति अपने लाभ के लिए जाति को कई तरह से प्रचारित करती है। पर सच्चाई यही है कि शीर्ष पर पहुंचा व्यक्तित्व इनसे लगभग अप्रभावित रहता है। लालू यादव यादवों के नेता माने जाते रहे हैं लेकिन क्या उन्होंने हर यादव का जीवन बदल दिया या रामविलास पासवान की वजह से पासवानों का आर्थिक और सामाजिक उन्नयन हो गया। सच्चाई यही है कि इन नेताओं की वजह से कुछ लोगों के जीवन में बदलाव भले ही आया हो लेकिन अपनी जाति के हर व्यक्ति का जीवन बदल देना उसे बेहतर बना देना किसी के लिए भी संभव नहीं है। अब कायस्थ जाति को ही ले लीजिए। कहा जाता है कि कायस्थ भगवान चित्रगुप्त के वंशज हैं। लेकिन डॉ हरिवंश राय बच्चन इस तथ्य को खारिज करते हैं। उनकी मान्यता है कि काया से निकला हर व्यक्ति कायस्थ है। यानि समूची मानव जाति ही कायस्थ है क्योंकि हर व्यक्ति काया से निकला है। संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर को ही लीजिए। उनकी उपलब्धियों को भी दलित जाति से जोड़ दिया जाता है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। पर जैसे हरि अनंत और हरि कथा अनंता है, भारत में भी न तो कभी जाति खत्म होगी और न जातिवाद क्योंकि वर्षों से जातिवाद का जो जहर भारतीयों के अवचेतन में जिंदा है उसका अवसान तो होने से रहा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest Posts

spot_imgspot_img

Don't Miss

Stay in touch

To be updated with all the latest news, offers and special announcements.