Tuesday, September 19, 2023

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शब्दों के जादूगर थे डॉ नागेश्वर लाल : डॉ जंग बहादुर पांडेय

डॉ जंग बहादुर पांडेय

किसी सरस्वती पुत्र की सुदीर्घ सारस्वत साधना का आकलन करना आसान काम नहीं है, विशेषत: उस सरस्वती पुत्र की साधना का आकलन करना तो और भी कठिन कार्य है; जिसका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी हो, जिसके चिंतन का आकाश विस्तृत और व्यापक हो और जो एक साथ कई भाषाओं एवं विधाओं में निष्णात हो, ऐसे वाणी साधक का बहिरंग जितना व्यापक होता है, अंतरग कहीं उससे अधिक गहरा। गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल ऐसे ही साहित्य मनीषी थे, जो दिखने में जितने साधारण थे, विद्वता में उतने ही विशिष्ट और श्लिष्ट। उनकी उपलब्धियों के विभिन्न पन्नों को करने के लिए कई रंगों की आवश्यकता होगी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल का जन्म बिहार प्रांत के  बक्सर जिलांतर्गत बगेन ग्राम के एक सभ्रांत कायस्थ परिवार में 9 मार्च 1930 को हुआ था।उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने मॉडल स्कूल आरा से प्रथम श्रेणी में पास की।आईए तथा बीए हिंदी ऑनर्स की परीक्षाएं उन्होंने जैन कॉलेज आरा से पास की। वहीं, एमए हिंदी की परीक्षा पटना विश्वविद्यालय से 1954 में पास की तथा इस परीक्षा में उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर स्वर्ण पदक प्राप्त किया।तब पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डा विश्वनाथ प्रसाद थे,जो इन्हें बहुत मानते थे। होनहार बीरवान के होत चिकने पात यह उक्ति गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल पर पूर्णत: सार्थक रूप में चरितार्थ होती है। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के रहे, यही कारण है कि मैट्रिक से एमए तक की सारी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की और अपने कुल खानदान के साथ-साथ प्रांत का भी नाम रोशन किया। गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल हिंदी के उदार मना प्राध्यापक थे ,जिनके द्वार पर ‘प्रवेश निषेध’ अथवा ‘अनुमति बिना प्रवेश निषेध’ का सूचना पट्ट कभी नहीं लगा। वे मानव में विशिष्ट और सामान्य के भेद बुद्धि से ग्रस्त, दर्पस्फीति  प्रदर्शन प्रिय अध्यापक नहीं थे, वरन् वे मानव की सामान्यता के सहज अभिलाषी एवं विश्वासी थे। अतः यह बता दूं कि जो कोई भी व्यक्ति परिचय के प्रमाण पत्र के बिना भी उनके निकट उनके दरबार में पहुंचा, वह समान प्रसाद का भागी बना। उनका दरबार सबके लिए खुला था। सचमुच उनका द्वार ‘देव मंदिर देहली’ था; जहां नृप- मुद्रा और रंक वराटिका ‘समभाव से चढ़ जाती हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य साकेत के प्रारंभ में संभवत: ऐसे व्यक्तित्व वाले महापुरुषों के लिए ही लिखा है-

 जय देव मंदिर देहली,

 समभाव से जिस पर चढ़ी,

नृप हेममुद्रा और रंक वराटिका,

 मुनि सत्य सौरभ की कली,

 कवि कल्पना जिसमें बढ़ी,

 फूले फले साहित्य की वह वाटिका

 महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड में सुरसरि और संतों की उपलब्धता सबके लिए सहज और सुलभ बताई है। मैं गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि उनकी उपलब्धता सबके लिए समान रूप से सुलभ थी।

सबही सुलभ सब दिन सब देसू। सेवत सादर समन कलेसू।।

 सुरसरि के समान पावन और पुनीत व्यक्तित्व वाले गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल सबके लिए आदरास्पद रहे। वे सबसे चंदन चर्चित एवं अभ्यर्थित रहे। वे सूर्य के समान देदीप्यमान रहे, सबको आलोकित करते रहे। उनके दरबार से कोई भी छात्र -छात्रा निराश नहीं लौटा। जो भी उनके पास गया, कुछ ना कुछ प्रसाद लेकर आया ।देने की प्रवृत्ति उनकी चेतना में सदैव रही, वे कुछ देकर अत्यधिक प्रसन्न होते थे।वे धनचोर नहीं, मनचोर थे।

कहा जाता है कि आज के इस भौतिकवादी युग में तीन चीजों का मिलना कठिन ही नहीं,दुष्यप्राप्य है

नवयुवकों के लिए नौकरी,

कन्याओं के लिए योग्य वर,

 शहर में अपना मकान।

 मुझे यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल को कभी नौकरी खोजनी नहीं पड़ी ,अपितु स्वयं नौकरी ने उन्हें बार-बार खोजा है। नौकरी प्राप्त कर वे थन्य नहीं हुए बल्कि स्वयं नौकरी उन्हें प्राप्त कर गौरवान्वित हुई। स्वयं नौकरी उनके पीछे पीछे चली है और वे आगे आगे। सभी पुत्रियों के लिए योग्य वर इन्हें सहजता से मिले।  छोटी बेटी इंद्राणी की शादी में थोड़ी परेशानी जरूर हुई लेकिन अंततः सफलता मिल ही गई। रांची जैसे महानगर के बरियातू क्षेत्र में इन्होंने 10 कट्ठा जमीन ले रखी थी, जिसमें आज आलीशान अपार्टमेंट (सीता प्रभावती) बना हुआ है। तीनों दुष्यप्राप्य चीजें इन्हें सहजता से मिलीं। इसे ईश्वरीय कृपा ही कहा जा सकता है या पुण्य का फलाफल। गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे मई 1976 में मिला, जब मैंने रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नामांकन कराया। मेरी एक अच्छी या बुरी आदत प्रारंभ से ही रही है कि मैं अपने शिक्षकों से उनके आवास पर सबसे पहले मिलना चाहता था। इस प्रसंग में जब मैं उनके बरियातू स्थित विश्वविद्यालय कॉलोनी के 19/5 फ्लैट में मिला, तो उनकी सहजता देखकर अवाक रह गया। उन्होंने सहज भाव से मेरा परिचय पूछा तथा कहां से पास किया है? यह भी जानना चाहा।उन्हें यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि मैंने बीए हिंदी ऑनर्स की परीक्षा एचडी जैन कॉलेज आरा से पास की है। उन्होंने कहा कि मैंने भी जैन कॉलेज आरा से ही हिंदी ऑनर्स की परीक्षा पास की है। उन्होंने हंसते हुए कहा पांडेय जी आप न केवल मेरे जिला के हैं, अपितु आप तो मेरे गुरु भाई भी हैं। जब मैंने अपने गांव का नाम लबना-पटखौली(पीरो) बताया, तो उन्होंने कहा कि आपके गांव के श्री केशव प्रसाद राय मेरे सहपाठी रहे हैं। मुझे यह जानकर और अधिक खुशी हुई कि वे मेरे ग्रामीण श्री केशव प्रसाद राय (प्रतापी प्रधानाध्यापक, उच्च विद्यालय अगिआंव)के वे सहपाठी रहे हैं जो +2 भूमिहार ब्राह्मण उच्च विद्यालय बक्सर से प्राचार्य होकर सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने कहा जब कभी आपको किसी पत्र में कठिनाई हो, तो आप आकर निसंकोच अपनी शंका समाधान कर सकते हैं ।उन्होंने ऐसा किया भी। यही उनकी सहजता और उदारता थी।एमए की कक्षाओं में वे निराला और आधुनिक कविता पढ़ाया करते थे ।उनके अध्यापन और समझाने की कला विलक्षण थी। वे किसी भी विषय को सहज रूप में और सामान्य भाषा में बोधगम्य बनाकर विद्यार्थियों को समझाते थे। निराला, महादेवी, पंत, प्रसाद और मुक्तिबोध जैसे आधुनिक कवियों पर तो उनका मानो एकाधिकार था। आधुनिक कविता के विषय में जो कुछ भी थोड़ा परिज्ञान मुझे है, वह गुरुदेव के अध्यापन कला का ही परिणाम है। यों तो वे आधुनिक कविता के मर्मज्ञ थे, परंतु एमए के आठों पत्रों पर उनका समान अधिकार था, ऐसी थी उनकी विलक्षण प्रतिभा। वे उच्च कोटि के समीक्षक थे। किसी भी बात को तार्किक ढंग से प्रस्तुत करना उनकी विशिष्ट कला थी। वे दिल के बड़े साफ थे और समीक्षा के क्षेत्र में दो टूक बातें करते थे। डॉ नामवर सिंह जी भी उनका लोहा मानते रहे हैं ।किसी की लल्लो-चप्पो करते मैंने उनको कभी नहीं देखा। वे इस पार या उस पार के हिमायती थे। जिससे पटी उसके लिए जी-जान लगा देते थे और जिससे  नहीं पटी उससे राम-राम। उनके जीवन से संबंधित अनेक संस्मरण एवं प्रसंग है, परंतु उनकी उदारता एवं सदाशयता का परिचय एक-दो उदाहरणों से ही हो  जाएगा। वर्ष 1996 में बिहार में व्याख्याता पद पर नियुक्ति के लिए इंटरव्यू चल रहा था। कई उम्मीदवार सिफारिश के लिए भटक रहे थे ।एक-दो लोगों ने मुझसे भी संपर्क किया। कहा कि डॉ नागेश्वर लाल आपके गुरुदेव रहे हैं, आपकी बात जरूर मानेंगे। हम लोग तन-मन-धन से तैयार हैं।मुझे इन उम्मीदवारों की सिफारिश करते बड़ा भय लग रहा था कि कहीं लोक-परलोक दोनों ना चला जाए। पटना में शाम में उनके आवास पर डरते डरते उनसे मिला और अपने उम्मीदवारों की समस्याएं उनके समक्ष रखी।मैंने तत्कालीन विश्वविद्यालय सेवा आयोग, पटना के अध्यक्ष डॉक्टर वहाब अशर्फी से मिलने की बात कही। उन्होंने कहा मेरे रहते आपको किसी से मिलने की आवश्यकता नहीं है। मेरे रहते आप अन्यों से मिलें, यह मेरी तौहिनी होगी। उन्होंने आगे कहा आपके सभी उम्मीदवारों की नियुक्तियां होगी, आप निश्चिंत होकर जाइए।उनके निर्देशानुसार मैने कलियुग धर्म का पालन किया। सचमुच जब परीक्षाफल निकला, तो मेरे सारे उम्मीदवार बाजी जीत चुके थे। मेरे हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। ऐसे उदार थे गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल।महाकवि तुलसी के शब्दो में

ऐसो को उदार जग माही।

गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। तीन पुत्रियां (इन्दु, इन्दिरा और इंद्राणी) एवं तीन पुत्र (प्रो राजेश कुमार,  भौतिकी, रांची कालेज, राजीव कुमार शोध छात्र, वाणिज्य, रांची और स्व०रंजन कुमार)। उनकी धर्मपत्नी प्रभावती लाल का निधन बहुत पहले हो चुका था। वे अपने पुत्रों से बहुत खुश नहीं रहते थे और वे बराबर कहा करते थे कि आप मेरे चौथे पुत्र हैं और कई मामलों में सबसे ज्यादा प्रिय। अपने मझले पुत्र राजीव उर्फ डब्ल्यू को वे अपना वास्तविक उतराधिकारी बताते थे और यह बहुत हद तक सच भी था।अनुराग पुस्तक माला की रायल्टी उन्हें ही मिलती है।उनकी कीर्ति को वे तन-मन-धन से आगे बढ़ा रहे हैं। डा.कृष्णा लाल  के निधन के बाद ( 3 दिसंबर 2004) वे काफी टूट चुके थे और कई बीमारियों से जूझ रहे थे। उनके इलाज के सिलसिले में कोलकाता और दिल्ली ले जाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। वे जितना विश्वास मुझ पर करते थे, शायद उतना विश्वास अपने पुत्रों पर नहीं। वे जिंदादिल और रंगीन मिजाज के इंसान थे। उनकी जिंदादिली और रंगीनी बुढ़ापे में भी मैंने देखी थी।कोलकाता के बिरला अस्पताल में अल्सर के इलाज के लिए वे भर्ती थे। मैं अटेंडेंट के रूप में देखभाल करता था। उन्होंने कहा कि पांडेय जी मेरे पीठ में सुरसुरी हो रही है। किसी नर्स को बुला दें। मैंने कहा मेरे रहते नर्स की क्या जरूरत है? मैं आपकी सेवा के लिए काफी हूं। उन्होंने कहा मेरी सुरसुरी नर्स के सुहराने से ही मिटेगी, आप थोड़ी देर कमरे से बाहर जाएं।मैंने उनके आदेश का पालन किया। आधे घंटे बाद जब नर्स बाहर निकली तो उसने कहा कि इस बूढ़े की पत्नी मर गई है क्या? मैं सब कुछ समझ गया। ऐसे थे रंगीन मिजाज जिंदादिल इंसान डॉ नागेश्वर लाल। उनकी शिष्य मंडली पूरे भारत वर्ष में उनका नाम रौशन कर रही है लेकिन सर्वाधिक शिष्य हजारीबाग में हैं। डॉ चंद्रेश्वर कर्ण, प्रो भूपाल उपाध्याय, डॉ शेषानंद मधुकर, डॉ शंभु बादल, डॉ सोमर साहु सुमन, डसॅ सी.पी दांगी, डॉ विजय संदेश, डॉ सामदेव सिंह, डॉ केके गुप्ता, केदार सिंह, डॉ सुबोध सिंह शिवगीत, डॉ मंजुला सांगा और डॉ संध्या प्रेम।यों तो वे सभी को मानते थे और उनकी कृपा सबों पर बरसती रही, लेकिन डॉ संध्या प्रेम पर उनकी विशेष कृपा रही, इसे वे सदैव स्वीकार भी करती हैं और यह उनकी उदारता और महानता भी है।मैं उनसे उनकी लंबी आयु के लिए संयम बरतने का सुझाव दिया करता था, परंतु उन्होंने उसे कभी नहीं स्वीकारा। वे कहा करते थे कि पांडेय जी अभी हिंदुस्तान में आदमी की औसत आयु 65 वर्ष है और मैं 75 का हो रहा हूं। मैं तो बोनस में जी रहा हूं। अगर मर भी गया, तो चिंता की बात नहीं लेकिन मैं अभी मारूंगा नहीं। लेकिन 8 फरवरी 2006 को मौत जीत गई और वे हार गए। नियति ने उन्हें लूट लिया और छोड़ दिया इस धरा धाम पर उनकी विद्वत्ता, कर्मठता जिंदादिली और उदारता को जो आज भी हमारे मानस में नई प्रेरणा नव्य उत्साह और नवीन उदभावनाओं का सृजन कर रही है। ऐसी महान विभूति, सरस्वती के वरद् पुत्र, शब्दोँ के जादूगर परमादरणीय गुरुवर डॉ नागेश्वर लाल को मेरा कोटिशः नमन,वंदन अभिनंदन है ।वे मरणोपरांत भी हमें साहित्यिक प्रेरणा एवं सूझबूझ देते रहेंगे- ऐसा विश्वास है। उनका जाना एक जीनियस का जाना है।

लेखक : केंद्रीय विश्वविद्यालय कोरापुट ओडिशा में हिन्दी के विजिटिंग प्रोफेसर हैं।

1 COMMENT

  1. मुझे गर्व है कि मैं ऐसे महापुरुष का समधी हूं।

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