दयानंद राय
न तो वे शाहजहां थे और न उनकी बेगम मुमताज पर उनके ख्यालों में प्रेम का प्रतीक एक ताजमहल तो तैरता ही था जो वे अपनी बेगम के लिए बनवाना चाहते थे। जब उनकी ये तमन्ना जमीन पर उतरी तो रांची की धरती ने वो आलीशान इमारत देखी जो अपनी स्कॉटिश कैसल स्टाइल और आर्किटेक्चर के लिए तब की रांची में चर्चा का विषय बन गयी थी। ये और बात है कि सर अली इमाम का ताजमहल संगमरमर से न बनकर लाल ईंटों और सुर्खी चूने से बना था। लेकिन यह कैसल की खूबसूरती थी, जिसने लोगों को इसका मुरीद बन दिया था। लोग तो यहां तक कहते थे कि इमाम साहब ने विला नहीं, बल्कि लाल किला बनवाया है और रांची क्या इस जोड़ की कोई दूसरी इमारत पूरे बिहार में नहीं है। बिहार इसलिए, क्योंकि जब यह इमारत बनी थी तो झारखंड अविभाजित बिहार का हिस्सा था। 100 साल से भी ज्यादा समय से वक्त के थपेड़े सहती इस इमारत की खूबसूरती आज भी बरकरार है। जानकार बताते हैं कि इमाम कोठी प्यार के रंगों में रंगी कोठी है। कोठी में और इसे ब्रिटिश हुकूमत के पहले बिहारी बैरिस्टर और हैदराबाद डेक्कन के प्राइम मिनिस्टर सर सैयद अली इमाम ने अपनी बेगम अनीस फातिमा के लिए बनवाया था। अनीस बेगम सर सैयद अली इमाम की तीसरी बेगम थी और उन्हीं के लिए उन्होंने रांची में यह इमारत बनवाई थी। उनकी चाहत तो यह थी कि मरने के बाद उनकी और उनकी बेगम की कब्र साथ रहे, जिससे वे मरकर भी जुदा न हों। लेकिन उनकी यह चाहत पूरी न हो सकी।
अनीस कैसल है इमारत का नाम
सर अली इमाम के पोते बुलु इमाम कहते हैं कि अली इमाम और अनीस फातिमा की प्रेम कहानी एक जिंदादिल वाइफ हसबैंड की प्रेम कहानी है। अनीस बेगम उनके मदर के भाई की बेटी थी और रिश्ते में वह उनकी कजन थी। उनकी सेकेंड वाइफ का नाम मरियम था और मरियम के इंतकाल के बाद उन्होंने अनीस करीम से शादी की थी। संभवत: वह अनीस से सबसे ज्यादा प्यार करते थे, इसलिए उन्होंने इस विला का नाम अनीस विला रखा। इसे उन्होंने स्कॉटलैंड के स्कैंडेनेवियन आर्किटेक्ट स्टाइल में बनवाया था और इसे बनने में 20 साल लगे थे। इसका निर्माण सन 1913 में शुरू हुआ था और 1932 में कंप्लीट हुआ। उस समय इसे बनाने में 20-30 लाख रुपए लगे होंगे, पर आज यह बिल्डिंग और इसकी जमीन करीब सौ करोड़ की होगी। यह अनीस कैसल 21 एकड़ जमीन में था और यहां 500 लीची और आम के पेड़ थे, लेकिन आज यह जगह सिमटकर 3 एकड़ में रह गयी है।सर अली इमाम को फाउंडर ऑफ मॉडर्न बिहार कह जाता है, क्योंकि उन्होंने ही 1911 में बंगाल से अलग करके अलग बिहार को जन्म दिया था।
पार्टियों की शान थीं अनीस बेगम
हेरिटेज एक्टिविस्ट और इमाम कोठी के इतिहास से वाकिफ श्रीदेव सिंह बताते हैं कि सर सैयद अली इमाम की तीसरी वाइफ बहुत जिंदादिल महिला थी। वब पटना में पार्टियों में शान मानी जाती थी। जिस पार्टी में वह चली जाती थीं, उस पार्टी का मेजबान उनको अपने बीच पाकर धन्य समझता था।तीन तल्लेवाली इस कोठी में 120 कमरे हैं और इसमें प्रवेश करने के लिए छह दिशाओं से दरवाजे बने हुए हैं। इसमें जिस संगमरमर का यूज हुआ है, वे जर्मनी से मंगाया गया था। मार्बल जर्मनी से इंपोर्ट होकर पहले कोलकाता और फिर कोलकाता से रांची आया। जब तक इमाम साहब जीवित रहे, इस कोठी की शान बनी रही। उनके समय में इस कोठी में अंग्रेज ऑफिसर्स भी आया-जाया करते थे, लेकिन 1932 में उनके इंतकाल के बाद इस कोठी की रौनक घटने लगी। सर अली इमाम चाहते थे कि मरने के बाद उनकी वाइफ की कब्र भी उनके कब्र के करीब बने। उन्होंने अनीस कैसल के पास दो कब्रें बनवाई थीं। एक कब्र में 1932 में अली इमाम के इंतकाल के बाद उन्हें दफना दिया गया, पर दूसरी कब्र आज तक खाली पड़ी है। अंतिम समय में लेडी इमाम पटना आईं और पटना में ही उनका इंतकाल हुआ। इंतकाल के बाद उन्हें पटना में ही दफना दिया गया। वर्तमान समय में यह कोठी मार्बल कारोबारी मोतीलाल की मिल्कियत है और उन्होंने इसके बड़े हिस्से में मार्बल का गोदाम बना रखा है।
सब ऑर्डिनेट जज के पद से रिटायर हुए थे सर अली इमाम के परदादा
सर अली इमाम का जन्म 11 फरवरी 1869 को पटना जिले के नेउरा गांव में नवाब सैयद इमदाद इमाम के घर में हुआ था। सर अली इमाम के परदादा, खान बहादुर सैयद इमदाद अली पटना के सब ऑर्डिनेट जज के पद से रिटायर हुए। उनके बेटे, खान बहादुर शम्स-उल-उलेमा सैयद वाहिद-उद दीन पहले हिंदुस्तानी थे, जिन्हें जिला मजिस्ट्रेट बनाया गया था। अली इमाम के पिता सैयद इमदाद इमाम असर पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर के साथ एक शायर भी थे। इनके बड़े भाई सैयद हसन इमाम भी जज रहे और उनका निधन 19 अप्रैल, 1933 को 61 साल की उम्र में जपला, पलामू में हुआ। 1917 में पटना हाई कोर्ट के बने जज अली इमाम बैरिस्ट्री की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए। वहां से वे जून, 1890 में पटना वापस आए और नवंबर 1890 से कलकत्ता हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। बाद में वे पटना हाई कोर्ट में 1917 में जज बने। वकालत के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय हो गए। 1906 में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो अली इमाम की प्रमुख भूमिका रही। अप्रैल 1908 में पहला बिहार राज्य सम्मेलन हुआ तो इसकी अध्यक्षता अली इमाम ने की। जिसकी पूरी जिम्मेदारी सच्चिदानंद सिन्हा और मजहरुल हक के कंधों पर थी। 30 दिसंबर 1908 को अली इमाम की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग का दूसरा सत्र अमृतसर में हुआ। इसी साल उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गई। 1911 में वे भारत के गवर्नर जनरल के एग्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्य बने और फिर इसके उपाध्यक्ष। 25 अगस्त 1911 को सर अली ईमाम ने ¨हदुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली करने का पूरा खाका उस समय भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग के सामने पेश किया, जिसे स्वीकारते हुए अंग्रेजों ने भारत की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली करने का एलान कर दिया। बांकीपुर पटना की एक सभा में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रासाद ने सर अली इमाम को आधुनिक बिहार के निर्माता की संज्ञा दी। 1910 से 1913 के बीच वक्फ बिल उनकी निगरानी में तैयार हुआ। 1914 मे उन्हे नाईट कमांडर (केसीएसआई) के खिताब से नवाज गया। 1915 मे लॉ मेंबर के पद से रिटायर हुए। 3 फरवरी 1916 को पटना हाई कोर्ट की स्थापना जब हुई तो उसके बाद सितंबर 1917 मे सर अली ईमाम को पटना हाई कोर्ट का जज बना दिया गया। वे दो साल तक रहे। अगस्त 1919 में निजाम हैदराबाद के प्रधानमंत्री बने। वे 1922 तक रहे। 1923 में फिर से पटना हाईकोर्ट वकालत शुरू की और साथ ही देश की आजादी के लिए खुल कर हिस्सा लेने लगे। काग्रेस की कई नीतियों का खुल कर समर्थन किया। स्वराज और स्वदेशी की पैरवी की। 1927 में सर अली ईमाम ने साइमन कमीशन का जमकर विरोध किया। 1931 में सर अली ईमाम ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और अगले साल ही 31 अक्टूबर 1932 को रांची में इनका निधन हो गया।