मुरारी मयंक
पिछले दो दिन से कोलकाता पुस्तक मेला घूम रहा हूं। साहित्य के प्रति की दिवानगी देखनी है तो कोलकाता जरूर आना चाहिए। रविवार को सात लाख लोग आए थे। केवल संख्या के आधार पर आकलन मत कीजिए। यहां से बाहर निकलने वाले लोगों के हाथों की थैली देखिए। एक या दो किताब नहीं बल्कि झोला भरकर लोग किताब खरीदते हैं। यह भी एक कारण नहीं बल्कि स्टॉल पर जाईये, समृद्ध समाज और विपुल साहित्य से सामना होगा। लिटिल मैगजीन आपको हतप्रभ कर देगा, जहां पर गांव-गांव से हस्त लिखित पत्रिकाओं का प्रकाशन कैसे होता है, जबकि हिन्दी में पत्रिका निकलने की बात पर ही लोग रोने लगते हैं। सैंकड़ों बंगला प्रकाशन में चंद हिन्दी प्रकाशन की उपस्थिति शक्तिहीनता को दर्शाती है। मेरे साथ मेरे अग्रज और बंगला साहित्य के अच्छे जानकर डीजे बसु है। वह समृद्ध बंगला साहित्य का राज बताते हैं। साहित्य लिखने के लिए गरीब होना होगा, वामावर्त सोचना होगा और दुनिया बनाना होगा। मेरे दिमाग में प्रेमचंद, निराला और प्रसाद का स्मरण हुआ। फिर याद आया बचपन में सुना था, साहित्य की देवी सरस्वती और धनलक्ष्मी एक साथ नहीं रहती है। तो क्या आज का हिन्दी साहित्य क्या पद, पैसा और पहचान आधारित हो गय है? दूसरा वामवर्त होने से मतलब है ह्रदय से सोचना न कि दिमाग से। वामी होने से अर्थ है करुणा, प्रेम, सत्य और समय आधारित देश काल का चिंतन करना। क्या हिन्दी समाज में यह केंद्रीय भाव होता है, तब जब हम लेखन करते हैं?