कोरापुट : प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि स्थानीय हुए बिना आप राष्ट्रीय नहीं हो सकते और राष्ट्रीय हुए बिना अंतरराष्ट्रीय नहीं हो सकते।इसलिए विकास के नये पायदानों पर चढ़ते हुए हमें अपनी जड़ों से मजबूती से जुड़ा रहना होगा। गुरुवार को ये बातें डॉ संजय कुमार ने कहीं। वे ओडिशा केंद्रीय विश्वविद्यालय कोरापुट में हिन्दी पर आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता बोल रहे थे। संगोष्ठी का विषय राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर हिन्दी की दशा और दिशा था। डॉ संजय ने कहा कि हमें नई पीढ़ी को अपनी भाषा, संस्कृति और मूल्यों से परिचित कराने की जरूरत है। भाषा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। आज बड़े पैमाने पर प्रवासी साहित्य लिखा जा रहा है। ऐसे में हमें अपने साहित्य में प्रवासी साहित्यकारों को शामिल करना चाहिए। उन्होंने कहा कि साहित्य अब वैश्विक होता जा रहा है। भारत आज पांचवें नंबर की आर्थिक शक्ति बन रहा है। हम जैसे-जैसे आर्थिक और राजनीतिक रूप से और मजबूत बनेंगे हमारी भाषा और संस्कृति और आगे बढ़ेगी। श्री कुमार ने कहा कि असम पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार है। यहां हिन्दी की स्थिति अच्छी है। अरुणाचल प्रदेश में जो 100 से ज्यादा जनजातियां रहती है वो संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग करते हैं। पूर्वोत्तर में हिन्दी निरंतर बढ़ रही है। यह हिन्दी के लिए गौरव का विषय है। कार्यक्रम में मंच संचालन करते हुए डॉ कमल कुमार बोस ने कहा कि हिन्दी के कदम लगातार बढ़ रहे हैं, यह लगातार प्रगति कर रही है। यह हम सब के लिए सुखदायी है और हर्ष का विषय है। उन्होंने कहा कि आनेवाला कल हिन्दी का है। ओडिशा में भी हिन्दी का विस्तार होनेवाला है। श्री बोस ने कहा कि हिन्दी प्रेम और शांति की भाषा है और यह एक वैश्विक भाषा है। संगोष्ठी में शांति निकेतन से आए डॉ अर्जुन कुमार ने कहा कि गीतांजलि श्री को रेत समाधि उपन्यास के लिए साहित्य का बुकर पुरस्कार मिलना, हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक बड़ी घटना है। इससे हिन्दी साहित्यकारों में एक उम्मीद जगी है। उन्होंने कहा कि किसी भी भाषा के साहित्यकार के लिए निराश होने की जरूरत नहीं है। वो अच्छा करेंगे तो उन्हें भी सम्मान मिलेगा। देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता संतति उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके लिए लोग हिन्दी पढ़ने लगे, सीखने लगे। उन्होंने कहा कि भाषाओं को हमें उदार हृदय से लेना चाहिए।
संगोष्ठी में फिनलैंड से जुड़े मिको ऑटियर ने कहा कि हेलसिंकी विश्वविद्यालय में हिन्दी सिखायी जाती है। फिनलैंड में ऐसे लोग जिनकी हिन्दी पढ़ने में रूचि हो कम है। पर वे बहुत परिश्रम से पढ़ाई करते हैं। वहीं चीन से जुड़े डॉ विवेक मणि त्रिपाठी ने कहा कि चीन में हिन्दी की सुखद स्थिति गौरव का विषय है। चीन में जो लोग भारत से आये उन्होंने यहां हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। प्राचीन काल से ही चीन भारत से सीखता आया है। वर्तमान समय में भी चीनी लोग भारतीय समाज को जानना चाहते हैं, वो जानते हैं कि भारत को भारतीय भाषाओं से ही जाना सकता है। आज चीन के 17 विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई हो रही है। आज हिन्दी बाजार की भाषा हो चुकी है। यही चीन में उसके प्रचार-प्रसार का कारण है। चीन में हिन्दी पढ़नेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भारत और चीन में साहित्यिक अनुवाद बड़ी तेजी से हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया में भी हिन्दी का बहुत स्कोप है। चीन में हिन्दी बाजार के साथ शोध और अनुवाद की भाषा बन चुकी है। हमें अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करने की जरूरत है।इसी तरह तेलंगाना से आए डॉ एम श्रीनिवास राव ने कहा कि हमलोगों को आशावादी रहकर जीना चाहिए। निराशा से कुछ नहीं होता। हम अपनी भाषा और मातृभाषा का सम्मान खुद नहीं करेंगे, तो दूसरे भी नहीं देंगे।उन्होंने इस दौरान कविता पाठ भी किया। उन्होंने कहा कि जन-जन की और मन-मन की भाषा है हिन्दी, करोड़ों हृदयों की आशा है हिन्दी। ज्ञान विज्ञान का साधन है हिन्दी, कवियों के दिलों की धड़कन में है हिन्दी। खलिहानों में अन्न बरसाता, किसानों की जुबान है हिन्दी। अतीत गौरव की साक्षी है हिन्दी, विश्व गौरव की आकांक्षा है हिन्दी। भारत के भविष्य की नींव है हिन्दी। हम सब जनता की मांग है हिन्दी। श्री राव ने कहा कि तेलंगाना और आंध्र की मुख्य संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी विकसित हो चुकी है। यहां प्रचलित दक्खिनी हिन्दी का ही एक रूप है। पूर्व में हिन्दी की कल्पना पत्रिका हैदराबाद से निकलती थी। यहां हिन्दी की स्थिति बेहतर है। कार्यक्रम में संबलपुर की डॉ कमल प्रभा कपानी ने कहा कि सिनेमा, दूरदर्शन और मीडिया के कारण देश और विदेश में हिन्दी का लगातार प्रचार-प्रसार हो रहा है। भारतीय नृत्य और संगीत के साथ यहां की संस्कृति को सभी ने सराहा है। उन्होंने कहा कि आज की युवा पीढ़ी इंटरनेट के माध्यम से हॉरर और अन्य गेम देख रहे हैं, इससे उनमें आतंक और असुरक्षा की भावना आ रही है। मीडिया में ऐसा परोसे जिससे युवा मानसिकता बेहतर हो। हमें ऐसा रचनात्मक साहित्य लिखना होगा जो युवाओं को भाए। शोले का डायलॉग्स सबकी जुबान पर है। उन्होंने कहा कि 21वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पूरे विश्व में सूचनाओं का विस्फोट हुआ। पर आज जो स्थिति है उसमें संवाद संवादहीन हो गया है। यह त्रासद स्थिति है।मजदूरों-किसानों के मुद्दे को मीडिया हाशिए में फेंक देती है। इसे बदलने की जरूरत है। कार्यक्रम में कैलिफोर्निया से जड़ीं डॉ नीलू गुप्ता ने कहा कि अमेरिका और विदेशों में हिन्दी उत्थान पर है। यहां के लगभग सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। अमेरिका में जब हमने होली पर कार्यक्रम किया उसमें साढ़े सात हजार लोग शामिल हुए। उन्होंने कहा कि हिन्दी को बढ़ावा देना है तो हमें नये बच्चों को हिन्दी सिखाना होगा। श्रीमती गुप्ता ने कहा कि अमेरिका में हिन्दी अच्छा काम कर रही है। हमने विजयी विश्व तिरंगा प्यारा एक पुस्तक बनायी है। उसमें विश्व के 45 देशों के लोगों ने अपनी रचनाएं भेजी हैं। हमारे जितने भी प्रवासी भारतीय बाहर गये हैं। वो जहां-जहां जाते हैं अपनी सभ्यता संस्कृति और भाषा लेकर जाते हैं।जब तक हम अपने बच्चों के साथ घर में हिन्दी नहीं बोलेंगे तबतक हिन्दी का पूरा विकास नहीं होगा। उन्होंने कहा कि
विदेश में आकर हमने अपना देश बसाया
हम इधर के भी रहे, उधर के भी रहे।
श्रीमती गुप्ता ने कहा कि सबकुछ भाषा से जुड़ा हुआ है।हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अमेरिका में बहुत काम हो रहा है। हिन्दी की तुलसी का पौधा हम घर-घर में रोपेंगे तो बहुत अच्छा रहेगा।कार्यक्रम में नेपाल में पत्रकार और शिक्षिका कंचना झा ने नेपाल के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी विषय पर वक्तव्य देते हुए कहा कि मुझे गर्व है कि मेरी जन्मभूमि भारत है। नेपाल और भारत में कोई खास अंतर नहीं है। नेपाल में हिन्दी उतनी नहीं बोली जाती जितना भारत में बोली जाती है। शादी के 11 साल बाद मुझे पता चला कि काठमांडू के त्रिभुवन यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई जाती है यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई। यहां बहुत से स्कूल है जहां हिन्दी पढ़ाई जाती है। यहां पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी का उज्जवल भविष्य है। यहां के लोगों के मन में डर बना रहता है कि हिन्दी कहीं हावी न हो जाए। पर हिन्दी को न कोई रोक सका है न रोक सकेगा। यह अपनी जगह पाकर रहेगी। उन्होंने कहा कि यहां हिन्दी की एक मासिक पत्रिका निकलती है उसका नाम है हिमालनी। उसमें मैं कार्यकारी संपादक हूं। यहां एक रेडियो नेपाल है जो सरकारी संस्था है। इसमें हिन्दी के लिए एक बुलेटिन आता है। मैं स्वयं रेडियो में संचालिका का काम करती हूं। रजनीगंधा खुद लिखती हूं और उसका संचालन भी करती हूं। हिन्दी को कोई नहीं रोक सकता। यहां प्रज्ञा प्रतिष्ठान है जहां अनुवाद का काम किया जाता है। नेपाली भाषी फेसबुक में जो स्टेटस रखते हैं वो हिन्दी में भी रखते हैं।राजनीति में बहुत से ऐसे नेता हैं जो हिन्दी में बोलते हैं। विश्व में हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए पत्रकारिता और रेडियो और अनुवाद का साथ न मिले तो वह उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ सकती। कार्यक्रम में नार्वे की राजधानी ओस्लो से जुड़े डॉ सुरेश चंद्र शुक्ल ने कहा कि नार्वे में हिन्दी का परचम उसी तरह लहरा रहा है। जैसे अन्य देशों में लहराता है। नार्वे में चालीस वर्षों से रहकर भी हम अपनी भाषा और संस्कृति छोड़ नहीं सकते। हमारे पासपोर्ट का रंग भले ही बदल गया है पर हमारी दिल में हिन्दी का रंग भरा हुआ है। बहुत से माता-पिता मिलकर हिन्दी और पंजाबी में स्कूल चला रहे हैं। जो बच्चा अपनी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करता है। वो जीवन में अच्छा करते हैं। नार्वे में हिन्दी रेडियो है और उसमें राजनीतिक बातें भी होती हैं।नार्वे से हिन्दी की पत्रिकाएं निकलती है।कार्यक्रम में डॉ मुन्नी लाल जायसवाल ने कहा कि ओडिशा के हिन्दी प्राध्यापकों को दोयम दर्जे का माना जाता था। यह पहली यूनिवर्सिटी है जहां हिन्दी का फुल फ्लेज्ड हिन्दी डिपार्टमेंट है। इसके लिए कुलपति डॉ चक्रधर त्रिपाठी बधाई के पात्र हैं। मैं कभी नहीं चाहता कि हिन्दी का कोई प्राध्यापक अपने को हीन समझे। ऐसा कुछ नहीं है जो हिन्दी में नहीं है।कार्यक्रम में सरस्वती वंदना डॉ कमल प्रभा कपानी ने की वहीं स्वागत वक्तव्य डॉ रानी सिंह ने दिया। मंच संचालन हिन्दी के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ कमल कुमार बोस ने किया तथा अध्यक्षीय भाषण डॉ उषा सिन्हा ने दिया। कार्यक्रम में डॉ शैलेश पंडित, डॉ जंगबहादुर पांडेय, नीदरलैंड से आयीं डॉ पुष्पिता अवस्थी, प्रो डॉ जयंत कर शर्मा, डॉ तनुजा मजूमदार, कत्थक नृत्यांगना डॉ अनु सिन्हा, डॉ दुलुमनी तालुकदार, डॉ मयूरी मिश्रा, डॉ जगदाले अप्पा साहेब, डॉ राणा सुनील कुमार सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा तथा ओडिशा केंद्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाओं और छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।